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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ १ परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनोवलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ २ लोकत्रयकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोद्धियते पुरुषार्थसिद्धघुपायोऽयम् ॥ ३ मुख्योपचारविवरणनिरस्तरविनेयदुर्बोधाः । व्यवहार-निश्चयज्ञा:प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ।। ४ निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुखः प्राय: सर्वोऽपि संसारः ।। ५ अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।। ६ माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ।। ७ व्यवहार-निश्चयों यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ ८. अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विजितः स्पर्शगन्धरसवर्णैः । गुण-पर्ययसमवेतः समाहितः समुदयग्ययध्रौव्यैः ॥ ९ वह परं ज्योति सदा जयवन्ती रहे, जिसमें समस्त अनन्त पर्यायोंके साथ सर्व पदार्थोकी माला दर्पण तलके समान प्रतिबिम्बित होती हैं ।।१।। जो परमागमका बीज हैं,जन्मान्ध पुरुषोंकी हस्तिकल्पनाके विधानका निषेधक हैं और सकल नयोंके विषयभूत एकांत कथनोंका विरोध मथन करनेवाला हैं,ऐसे अनेकान्तवादको मै नमस्कार करता हूँ ॥२॥ तीन लोक-गत पदार्थोको देखनेके लिए अद्वितीय नेत्ररूप परमागमका निरूपण कर हमारे द्वारा प्रयत्नके साथ विद्वानोंके लिए यह पुरुषार्थसिद्धिका उपायरूप ग्रन्थ उद्धार किया जाता है।।३।। मुख्य और उपचारके विवरणसे शिष्योंके अतिदुस्तर अज्ञानको दूर करने वाले व्यवहारनय और निश्चयनयके ज्ञाता पुरुष संसारमें धर्मतीर्थका प्रवर्तन करते है ॥४॥ विद्वान् लोग इन दोनों नयोंमेंसे निश्चयनयको भूतार्थ (यथार्थ) और व्यवहारनयको अभूतार्थ (अयथार्थ) कहते है। प्रायः सभी संसार यथार्थज्ञानसे विमुख हैं ॥ ५॥ मुनीश्वर लोक अज्ञ पुरुष को समझानेके लिए अभूतार्थ (व्यवहार) नयका उपदेश करते हैं । जो पुरुष केवल व्यवहारनयको ही साध्य जानता हैं,उसके लिए उपदेश नहीं हैं ॥६। जैसे सिंहके नहीं जाननेवाले पुरुषके लिए माणबक (बिलाव) ही सिंह हैं, उसी प्रकार निश्चयके नहीं जानने वाले पुरुष के व्यवहार ही निश्चयनयकी रूपताको प्राप्त होता हैं ॥७॥ जो पुरुष तात्त्विक रूपसे व्यवहार और निश्चयनयको जानकर मध्यस्थ रहता हैं, अर्थात् किसी एक नयका आग्रही नहीं होता, वह शिष्य ही भगवान्की देशनाके अविकल फलको प्राप्त करता हैं । ८। यह आत्मा चेतनास्वरूप हैं, स्पर्श रस गन्ध वर्णसे रहित है, अपने गुण-पर्यायोंसे समवेत है और उत्पाद व्यय नौव्यसे समाहित हैं॥९॥ यह चेतन आत्मा अनादिकालकी परम्परासे अपने ज्ञान-पर्यायोंके द्वारा नित्य परिणमन करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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