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________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद विद्या दर्पणायते ॥ १ देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवहंणम् । ससारदुःखतः सत्त्वान यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनोकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ ३ श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढागोढमष्टाङ्गं सम्यदर्शनमस्मयम् ॥ ४ आप्तेनोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञनाऽऽगमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।५ क्षत्पिपासाजरातजन्मान्तक मयस्मया. न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥६ परमेष्ठी परंज्योतिविरागो विमल. कृती । सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥७ अनात्मार्थ विना रागैःशास्ता शास्ति सतो हितम ध्वनन् शिल्पिक रस्पन्मिज किमपेक्षते । आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टष्ट विरोध कम । तत्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापयघट्टनम् ॥९ जिन्होंने कपनी आत्मासे राग-द्वेषादिरूप पापमलको सर्वथा धो डाला है और जिनकी केवलज्ञानरूपी विद्या अलोकाकाश-सहित त्रिलोकोंको जानने के लिए दर्पण के समान हैं, ऐसे श्री वर्धमान् स्वामी के लिए नमस्कार हो॥१।मैं (समन्तभद्र) कर्मों के नाश करने वाले उस यथार्थ धर्मका उपदेश करता हूँ जो कि जीवोंको संसारके दुःखोंसे निकाल कर उत्तम सुखमें धारण करता है॥२॥ धर्मके ईश्वर तीर्थकरादि देवोंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है। इनके प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण हैं ॥ ३ ॥ सम्यग्दर्शन का स्वरूप - सत्यार्थ आप्त, आगम और गुरुका तीन मूढ़तासे रहित, आठ स्मय (मद) से रहित और आठ अङ्गेसे सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ।। ४ ॥ सत्यार्थ आप्त (देव) का लक्षणजिसने राग-द्वेषादि दोषोंका विनाश कर दिया है, जो सर्व चराचर जगत्का जानने वाला सर्वज्ञ है और वस्तु-स्वरूपके प्रतिपादक आगमका स्वामी अर्थात् मोक्ष मार्गका प्रनेता हैं वही पुरुष नियमसे सच्चा आप्त होने के योग्य हैं। अन्यथा आप्तपणा हो नहीं सकता । अर्थात् जो वीतरागी,सर्वज्ञ और हितोपदेशी नहीं हैं ऐसा पुरुष कभी सच्चा देव नहीं हो सकता है ।।५।। निर्दोष वीतरागी आप्त का लक्षण-जिसके भूख, प्यास, जरा, रोग, जन्म, मरण भय, मद, राग, द्वेष, मोह और 'च' शब्द से सूचित चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, प्रस्वेद और खेद ये दोष नहीं है, वह पुरुष वीतरागी आप्त कहा जाता है ।।६।। ऐसे ही आप्तको परमेष्ठी, परंज्योति, वीतराग, विमल, कृती, सर्वज्ञ, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, अनादि-अनन्त और सार्व सबका हितेषी) शास्ता या मोक्षमार्गप्रणेता कहते है ।।७।। वह शास्ता विना किसी अपने प्रयोजनके केवल निस्वार्थ भावसे रागके विना सन्त जनोंको हितका उपदेश देता है । बजाने वाले शिल्पीके हाथ के स्पर्शसे ध्वनि करता हुआ मृदंग किसी से क्या अपेक्षा रखता है ? ॥८।। भावार्थ-जैसे बजता हुआ मृदंग शिल्पीसे या अन्य किसीसे कोई अपेक्षा नहीं रखता है। इसी प्रकार वीतराग पुरुष भी भव्योंको उपदेश देते हुए किसीसे कुछ अपेक्षा नहीं रखते हैं । जैसे मृदंगका स्वभाव बजने का हैं, वह बजाने वालेके हाथका निमित्त पाते ही बजने लगता है, इसी प्रकार शास्ताका स्वभाव उपदेश देने का हैं, भव्य जीवोका निमित्त पाते ही उसके द्वारा दिव्य उपदेश प्रकट होने लगता है। सत्यार्थ आगम (शास्त्र) का लक्षण-जो आप्तके द्वारा उपदिष्ट हो, वादी-प्रतिवादीके द्वारा जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सके, प्रत्यक्ष और अन Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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