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________________ ३८६ श्रावकाचार-संग्रह लोकद्वयेऽपि सौख्यानि दृश्यन्ते यानि कानिचित् । जन्यन्ते तानि सर्वाणि चतुरङ्गेण देहिनः ॥१७ निरस्यति रजः सर्व न्यायं सूचयते हितम् । मातेव कुरुते कि न चतुरङ्ग निषेवणा ॥१८ चतुरङ्गमपाकृत्य कुर्वते कर्म ये परम् । कल्पद्रुममपाकृत्य ते भजन्ति विषद्रुमम् ।। १९ चतुरङ्गं सुखं दत्तयत्तत्कर्म परं कथम् । यत्करोति सुहृत्कार्य तन्न वैरी कदाचन ॥२० ये सन्ति साधवोऽन्ये च चतुरङ्गविभूषणाः । विधेयो विनयस्तेषां मनोवाक्कायकर्मभिः ।।२१ गणानामनवद्यानां तदीयानामनारतम । चिन्तनीयं पटीयोंभिरुपबंहणकारणम् ॥२२ ध्यायतो योगिनां पथ्यमपथ्यप्रतिषेधनम् । मानसो विनयः साधोजीयते 'शुद्धिसाधकः ॥२३ यश्चिन्तयति साधूनामनिष्टं दुष्टमानसः । सर्वानिष्टखनिर्मूढो जायते स मवें मये।२४ दर्भगो विकलो मर्यो निविवेको नपुंसकः । नीचकर्मकरो नीचो यतिदूषणचिन्तकः ।।२५ विज्ञायेति महाप्राज्ञाः संयतानामरेफसाम् । सञ्चिन्तयति नानिष्टं त्रिविधेन कदाचन । २६ श्रवणीयमनाक्षेपं सपर्याप्रतिपादकम् । अनवज्ञापरं तथ्यं मधुरं हृदयङ्गमम् ।। २७ वचनं वदत: पथ्यं रागद्वेषाद्यनाविलम् । वाचिको विनयोऽवाचि वचनीयनिखर्वकः ॥२८ अभ्याख्यानतिरस्कारकारकं गुणदूषकम् । न वाच्यं वचनं भक्तस्तपोधनविनिन्दकम् ।। २९ वदन्ति दूषणं दीना ये साधूनामनेनसाम् । ते भवन्ति दुराचारा दूष्या जन्मनि जन्मनि ३० चाहता है ।।१६।। इस लोक और परलोकमें जितने कुछ भी सुख दिखाई देते है वे सब जीवको इस चतुरंगी आराधनाके द्वारा ही प्राप्त होते है ।।१७।। भली-भाँतिसे सेवित यह चतविध आराधना माताके समान कर्म-रजको दूर करती है, न्याय युक्त कर्तव्यको सूचित करती है और एसा कौन सा हितकारी कार्य है, जिसे यह न करती हो ।।१८।। जो पुरुष इस चतुरंगी आराधनाको छोडकर मक्ति प्राप्तिके लिये अन्य कार्य करते है, वे कल्पवृक्षको छोडकर विष वृक्ष की सेवा करते हैं ।।१९।। यह चतुर्विध आराधना जो सुख देती हैं, वह अन्य कार्य कैसे दे सकता हैं? मित्र जो सुखका कार्य करता है. वह वैरी कदाचित् भी नहीं कर सकता ॥२०॥ जो साधु इस चतुर्विध आराधनाओंसे विभषित है. वे अन्य हैं और उनकी विनय मन वचन कायसे करना चाहिए।।२१।। निर्दोष गुणोंका बद्धिमान पुरुषोंको निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए. क्योकि वह धर्म बढानेका कारण हैं।।२२॥ योगियोंके पथ्य (हित) रूप और अपथ्यका निषेध करनेवाले गुणका चिन्तवन करते हुए साधुके सिद्धिका साधक मानसिक विनय होता हैं ।।२३।। जो दुष्टचित्त पुरुष साधुओंका अनिष्ट चिन्तवन करता है. वह मूढ भव भवमें सभी अनिष्टोंकी खानि होता है ।। २४|| यतियोंके दोषोंका चिन्तवन करनेवाला पुरुष भव भवमें दुर्भागी विकलांगी मख अविवेकी नपंसक और नीचकर्म करनेवाला होता हैं। २ ।। ऐसा जानकर महान् ज्ञानी पुरुष पाप-रहित साधुओंके अनिष्टका त्रियोगसे कदाचित् भी चिन्तवन नहीं करते है ।।२६।। यह मानसिक विनयका वर्णन किया । * अब वाचनिक विनयका वर्णन करते है-सुननेके योग्य, आक्षेप-रहित, पूजा-उपासनाके प्रतिपादक, अवज्ञा-रहित, सत्य,मधुर,हृदयको प्रिय, पथ्य और राग-द्वेषा दिसे रहित वचन बोलनेवाले परुषके वचन-सम्बन्धी दोषोंका दूर करनेवाला वाचनिक विनय कहा गया हैं ।।२७-२८॥ भक्त श्रावकोंको साधके दोष प्रकट करनेवाले, तिरस्कार करनेवाले,गुणोंमें दोष लगानेवाले और उनकी निन्दा करनेवाले वचन कभी नहीं कहना चाहिए ।।२९।। जो अज्ञानी हीन जन दोष-रहित साधुओंके दोष कहते है, वे जन्म-जन्ममें दुराचारी और दोषोंके भाजन होते है ।। ३०॥यति-निन्दा १. मु. ज्ञेय। २. मु. धन्याः । ३. म. सिद्धि- । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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