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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३८७ अनादेयगिरो गाः क्लेशिनः शोकिनो जडाः । यतिनिन्दापरा: सन्ति जन्मद्वितपदूषिताः ॥३१ कि चित्रमपरं तस्माद्यदुदासीनचेतसाम् । वन्दका वन्दितास्तेषां निन्दका: सन्ति निन्दिताः ।।३२ यादशः क्रियते भाव: फलं तत्रास्ति तादृशम् । यादशं चय॑ते रूपं तादृशं दृश्यतेऽब्द के ॥३३ वतिनां निन्दक वाक्यं विबुद्धयेति न सर्वदा । मनोवाक्काययोगेन वक्तव्यं हितमिच्छता ॥३४ अभ्यत्थानासनत्यागप्रणिपाताञ्जलिक्रिया । अयाति संयते काया यात्यनवजनं पुनः ॥३५ आयातं ये तप राशि विलोक्यापि न कुर्वते । अभ्युत्थानासनत्यागी नभ्य: सन्त्यधमा: परे ।।३६ यत्र यत्र विलोक्यन्ते संयता यतमानसाः। तत्र तत्र प्रणन्तव्याविनयोद्यतमानसे: ।। ३७ शय्योपवेशनस्थानगमनादीनि सर्वदा 1 विधातव्यानि नीचानि संयताराधनापरैः ।।.८ पुण्यवन्तो वयं येषामाज्ञां यच्छन्ति योगिनः । मन्यमानैरिति प्राज्ञैः कर्तव्यं यतिभाषितम् ।। ३९ निष्ठीवनमवष्टम्भं जम्भणं गात्रभञ्जनम । असत्यभाषणं नर्म हास्यं पादप्रसारणम् ।।४० अभ्याख्यानं करस्फोट करेण करताडनम् । विकारमङ्गस कारं वजयद्यतिसन्निधौ ।।४१ उच्चस्थानस्थितैः कार्यः वंदना न तपस्विनाम् । न गतिमतः कार्य: विनीतैनं च पृष्ठतः ।।४२ विधेति विनयोऽध्यक्षः करणीयो मनोषिभिः । परोक्षेऽपि स साधूनामाज्ञाकरणलक्षणः ॥४३ करनेवाले पुरुष अनादरणोय वचन वाले, निन्द्य, क्लेश-युक्त, रोगी शोकी मर्ख और दोनों जन्मोंको दूषित करनेवाले होते है ।।३१।। इससे अधिक आश्चर्यकी और क्या बात हो सकती है कि उदासीन चित्त रहनेवाले साधुओंकी वन्दना करनेवाले इस संसारमें वन्दन य होते हैं और निन्दा करनेवाले पुरुष निन्दाके पात्र होते है ।। ३२।। जो मनुष्य इस जन्म में जैसा भाव करता है उसे पर भवमें वैसा ही फल प्राप्त होता है। मनुष्य जैसा रूप बनाता है, दर्पण में वैसा ही दिखाई देता है ।।३३।। ऐसा जानकर अपना हित चाहनेवाले पुरुषको व्रतियोंके निन्दक वाक्य कभी भी मन वचन कायसे नहीं बोलना चाहिए ॥३४॥ यह वाचनिक विनय हैं । अब कायिक विनयका वर्णन करते है-संयमी साधके आनेपर उठकर खडा होना, अपने आसनका त्याग करना, नमस्कार करना,हाथ जोडकर अंजुली बाँधना आदि क्रियाएँ भक्तिसे करना चाहिए । तथा उनके चलने पर पीछे-पीछे चलना चाहिए ।। ३५।। जो पुरुष तपोराशि साधुको आता हुआ देखकर भी उठकर खडे नहीं होते और अपना आसन-त्याग नहीं करते हैं उनसे अधम और कोई साधु मनुष्य नहीं है ।।३६।। जहाँ-जहाँ पर भी संयत मनवाले साधुजन दिखाई देवें, वहाँ-वहाँ पर विनयसे उद्यत चित्तवाले श्रावकोंको उन्हें नमस्कार करना चाहिए ॥३७।। साधुओंकी आराधनामें तत्पर श्रावकोंको सदा ही साधओंसे नीचे स्थानपर सोना उठना व बैठना, और गमनादिक क्रिया करना चाहिए ।।३८ । 'हम लोग पुण्यवान् हैं, जिनपर योगीज न आज्ञा करते है' ऐसा मानते हुए ज्ञानीजनोंको साधुओं द्वारा कहा गया कार्य विनयके साथ करना चाहिए ।।३।। साधुओंके समीप थूकना, सहारा लेकर बैठना, जंभाई लेना, शरीर के अंगोंका चटकाना. असत्य बोलना. हंसी-मजाक करना, पैर पसारना. गप्त बात कहना, चटकी बजाना. हाथसे हाथ ताडना अर्थात ताली बजाना, अंगोंकी विकाररूप चेप्टा करना और अंगोंका संस्कार करना, इत्यादि अयोग्य कार्योको नहीं करना चाहिए ॥४०-४१॥ ऊँचे स्थानपर बैठकर उन्हें बाई ओर या पीछेको ओर करके तपस्वियोंको वन्दना नहीं करना चाहिए तथा विनीत पुरुषोंको साधुके साथ गमन करते समय न उन्हें बाई ओर करके गमन करना चाहिए और न पीछेको ओर करके आगे गमन करना चाहिए ॥४२॥ इस प्रकार मनीषीजनोंको मानसिक वाचनिक और कायिक यह तीन प्रकारका प्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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