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परिशिष्ट
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भव्योंके कलि-मलरोग गल जाते हैं और मनोवांछित सैकडों पदार्थ प्राप्त होते है, ऐसा मुनिजन कहते है ।।९।।
दोहाङ्क २०६ और २०७ के मध्य 'अ' प्रतिमेंपारंभइ ण्हवणाइयई जे सावय जि भणंति । दसण तेहं विणासियउ एत्थु ण कावउ भंति ।। १०
___ अर्थ- जो जिनभगवान्के अभिषेक करने में सावद्यदोषको कहते हैं, उनका सम्यग्दर्शन विनष्ट हो जाता है, इसमें कुछ भी भ्रान्ति नहीं है ।।१०।। .
दोहाङ्क २२३ और २२४ के मध्य मेंजो जिण साणि भासियउ सो मई कहियउ सारु। जो पालेसइ भाउ करि सोतरि पावइ पारु ।।११ एह धम्म जो आचरइचउवण्णहं मह कोइ । सो णरु णारी भव्ययण सुरयइ पावइ सोइ ॥१२ काइ बहुलइं इंखियई तालू सूखइ जेण । यहु परमक्खरू चेर लइ कम्मक्खउ हुइ तेण ॥१३ भव्वय लग्गा सुवयण सुग्गइ गज्छइ जेण । जह दिट्ठिवउ भवगयह कणिउ ण किम्वउ तेण।।१४
अर्थ- जो जिनशासनमें कहा हैं, वही श्रावकधर्मका सार मंने कहा है। जो भावोंसे इसे पालेगा, वह संसार-सागरको तैरकर पार हो जायगा ।।११।। डस श्रावक धर्मको चारों वर्णो मेंसे जो कोई भी भव्य नर-नारी जन आचरण करेंगे,वे देवगतिको पावेंग ।।१२।। बहुत कहनेसे क्या, जिससे कि ताल सूखे । यही परम अक्षरको चिरकाल तक धारण करो, जिसने कि कर्मक्षय होवे ।।१३।। जिससे भव्यजीव सुगतिको प्राप्त होते है, वे ही सुवचन है । जिनसे भवगतिको देखना पडे ऐसे वचन नहीं कहना चाहिए ।।१४।।
दोहाङ्क २२४ के पश्चात् 'क' प्रति मेंइय दोहावद्ध वयधम्म देवसेणे उदिठ्ठ । लहु अक्खर मत्ताहीणमो पय सयण खमंतु ॥१५
___ अर्थ-इस प्रकार देवसेनने इस दोहाबद्ध श्रावकव्रतधर्मका उपदेश दिया। इसमें लघु अक्षर मात्रसे हीन जो पद हों, उन्हें सज्जन क्षमा करें ।।१५।।
झ प्रतिमें दोहाङ्क ९४ नहीं हैं। वस्तुतः वह मूलका नहीं होना चाहिए, तभी ग्रन्थकारका २२० दोहोंके द्वारा श्रावकघर्मके प्रतिपादनका कथन ठीक बैठता है । मुद्रित प्रति के अनुरोधसे उसे यहाँपर दिया गया हैं।
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