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________________ परिशिष्ट कुछ प्रतियोंमें कुछ दोहे अधिक पाये जाते है जो कि प्रक्षिप्त प्रतीत होते है,क्योंकि गन्थकर्ताने अपने दोहोंकी संख्या - जिनमें कि श्रावक धर्मका वर्णन किया गया है, २२० ही कही है। पर विषयकी समानताके कारण उन अधिक पाये जानेवाले दोहोंको यहाँपर दिया जा रहा है दोहाङ्क २२ और २३ के मध्य 'भ' प्रतिमेंमज्जहु तिजहु भन्वयण जेण मई विवरीय । हीणकुलेसु य जोय कहिं तस थावर उवति ।।१ परिहर मांस हु अरि जिय पंचेहि णासो पसेहि । तस्सु वि थावर धाइही सम्मोच्छिय बहु होइ ॥२ अर्थ- हे भव्यजनो, मद्यको तजो, इसके पीनसे बुद्धि विपरीत हो जाती है। यह हीन कूलोंके योग्य कही है। उसमें त्रस और स्थावर जीव उत्पन्न होते है ।। १।। अरे जीव, मांसका परिहार कर, वह पंचेन्द्रिय जीवोंके नाशसे प्रसूत होता है और फिर भी उसमें बहुत अस और स्थाबर सम्मृर्छन जीव उत्पन्न होते रहते है ॥२॥ दोहाङ्क २८ और २९ के मध्य 'क' प्रतिमेंचउ ए इंदिय विणि छह अट्ठह तिणि हवंति । दह चरिदिय जोवडा बारह पंच हवति ॥३ दोहाङ्क ७६ और ७७ के मध्य 'भ' प्रतिमेंभरहे पंचमकालहि ण स्सेणी महन्वयघारी। अत्थि अणुव्वयधारी कोट्टिहि लक्खेसु कोई ॥४ । अर्थ-भरतक्षेत्रमें इस पञ्चमकालमें श्रेणीपर चढनेवाले उपशमक या क्षपक महाव्रतधारी नहीं होते है। केवल महाव्रतधारी करोडोंमें कोई और अणव्रतधारी लाखोंमें कोई विरला होता है॥४॥ दोहाङ्क १८१ और १८२ के मध्य 'क' प्रतिमेंजिण्ण व्हावद उत्तमरसहि सक्कर-अम्ममवेहि । सो नर जम्मोवहि तरहि इत्थु म भंति करेहि ॥५ जो घियकचनवण्णडइ जिणु ण्हावइ धरि भाउ । सो दुग्गइ गइ अवहरइ जम्मि ण ढक्कइ पाउ ॥६ दुद्धे जिणवरु जो ण्हवइ मुत्ताहलधवलेण। सो संसारि ण संभवइ दुवई पावमलेण ॥७ दुद्धशडाझढि उत्तरइ दडवड दहिउ षडंति (°तु भविबहं मुच्चइ कलिमलहं जिणदिट्ठउ विसहंतु ।।८ सम्वोसहि जिण हाहियइं कलिमलरोय गलति । मणवंछियसय संभवहि मणिगण एम भणति ।।९ अर्थ-जो जिनभगवान्को शक्कर और आमके उत्तम रसोंसे नहलाता है, वह मनुष्य संसारसागरके पार उतरता है, इसमें भ्रान्ति मत करों॥५॥ जो कंचनवर्णघृतसे जिनभगवान्को उत्तमभावोंसे नहलाता है, वह खोटी गतिको दूर करता है और जन्मभर उसे पाप ढूंकता नहीं है ।।६।। जो मुक्ताफलके समान दूधसे जिनवरको नहलाता है, वह फिर संसारमें उत्पन्न नहीं होता और पापमलसे मुक्त हो जाता है ।।७|| दूधकी धाराके पश्चात् जिनभगवान्पर धडाधड पडता हुआ दही भव्यजनोंको कलिमलसे मुक्त कर देता है ।।८।। सवौंषधिके द्वारा जिनभगवान्को नहलानेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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