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यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन
नमदमरमौलिमन्दरतटान्त राजत्पदनख नक्षत्रकान्त । विबुधस्त्रीनेत्राम्बुजविबोध मकरध्वजधनुरुद्धवनिरोध ।। ५४२ बोधयविदितविधेयतन्त्र का नामापेक्षा तव परत्र । दधतः प्रबोधम सुभृज्जनस्य गुरुरस्ति कोऽपि किमिहारुणस्य ।। ५४३ निजबीजबलान्मलिनापि महति धीः शुद्धि परमामभव भजति । युक्तेः कनकाइमा भवति हेम कि कोऽपि तत्र विवदेत नाम ।। ५४४ परिमाणमिवातिशयेन वियति मतिरुच्चैर्नरि गुरुतामुपैति । द्विश्ववेदिनिन्दा द्विजस्य विश्राम्यति चित्ते देव कस्य ।। ५४५ कपिलो यदि वाञ्छति वित्तिमचिति सुरगुरुर्गुम्फेष्वेष पतति । चैतन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वद तत्र विदित ।। ५४६ भूपवनवनानलतत्त्वकेषु धिषणो तिगुणाति विभागमेषु । न पुनर्वादि तद्विपरीतधर्मधाम्नि ब्रवीति तत्तस्य कर्म ।। ५४७
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तथा जो मुक्तिश्रीरूपी स्त्रीके साथ रमण करके कृतार्थ हो चुके है ऐसे हे जिनेन्द्र! आपकी जय हो । ५४१ || नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटरूपी सुमेरुके प्रान्तभाग में जिनके पद नख चन्द्रमाकी भाँति शोभित होते है, जो देवांगनाओंके नेत्ररूपी कमलोंको विकसित करते हैं और जो कामदेव के धनुष के उत्सवको रोकते है ऐसे काम-विजेता हे जिनेन्द्र देव ! आप जयवन्त हों
५४२ || हे जिन! आपने मति, श्रुत और अवधिज्ञानके द्वारा जानने योग्य वस्तुओं को जान लिया है। इसलिए आपको किसी गुरुकी आवश्यकता नहीं हुई। ठीक ही है प्राणियोंको जगानेवाले सूर्यका भी क्या कोई गुरु है ? हे भवरहित! महापुरुषोंकी मलिन बुद्धि भी अपने ज्ञान ध्यान आदि बलसे अत्यन्त शुद्ध हो जाती है । उपाय से स्वर्णपाषाण स्वर्णरूप हो जाता हैं इसमें क्या किसीको विवाद है ? ॥। ५४३-५४४ ।। ( किन्तु मीमांसक किसी पुरुषका सर्वज्ञ होना स्वीकार नहीं • करता। उसका कहना हैं कि मनुष्यकी बुद्धि में कुछ विशेषता मानी जा सकती है किन्तु उसका यह मतलब नहीं हैं कि वह अतीत और अनागतको भी जान सके, उसे उत्तर देते हुए कहते हैं -) जैसे परिमाणका अतिशय आकाशमं पाया जाता है वैसे ही बुद्धिका अत्यन्त विकास मनुष्य में होता हैं । इसलिए मीमांसकने जो सर्वज्ञकी आलोचना की हैं वह देव! किसीके भी चित्तमें नहीं उतरती ।। ५४५ ।। भावार्थ- जिसमें उतार-चढाव पाया जाता है उसका उतार-चढाव कहीं अपनी अन्तिम सीमाको अवश्य पहुँचता हैं। जैसे परिमाण ( माप) में उतार-चढाव देखा जाता हैं अतः उसका अन्तिम उतार परमाणु में पाया जाता है और अन्तिम चढाव आकाश में; परमाणुसे छोटी और आकाशसे बड़ी कोई वस्तु नहीं हैं। वैसे ही ज्ञान भी घटता बढता है किसीमें कम ज्ञान पाया जाता हैं और किसी में अधिक । अतः किसी मनुष्यमें ज्ञानका भी अन्तिम विकास अवश्य होना चाहिए और, जिसमें उसका अन्तिम विकास होता है वही सर्वज्ञ हैं । 'यदि नांख्य अचेतन प्रकृतिमें ज्ञान मानता हैं तो यह तो चार्वाके वचनोंका ही प्रतिपादन हुआ; क्योंकि चार्वाक पञ्चभूतसे आत्मा और ज्ञानकी उत्पत्ति मानता हैं । और यदि चैतन्य बाह्य वस्तुओंको नहीं जानता तो हे विश्व प्रसिद्ध देव! आप बतलावें कि वह कैसे किसीके लिए उपयोगी हो सकता है ? || ५४६ ॥ भावार्थ - सांख्य आत्मा मानता हैं और उसको चैतन्य स्वरूप भी स्वीकार कहता है किन्तु चैतन्यको ज्ञान- दर्शनरूप
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