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________________ १८६ श्रानकार-संग्रह सुरपतियुषतिश्रवसाममरतलस्मेरमञ्जरीरुचिरम् । चरणमकिरणजालं यस्य स जयताज्जिनो जगति ॥ ५३४ वर्ण: दिविजकुञ्जरमौलिमन्दारमकरन्दस्यन्दकरविसरसारधूसरपदाम्बुज । बैदग्धीपरमपर प्राप्तवादजय विजितमनसिज ।। ५३५ मात्रा यस्त्वाममितगुणं जिन कश्चित्सावधिबोधः स्तोति विपश्चित् । मूनमसो नन काञ्चनशैलं तुलयति हस्तेनाचिरकालम् ।। ५२६ स्तोत्रे यत्र महामुनिपक्षाः सकलैतिह्याम्बुधिविधिदक्षाः। मुमुचुश्चिन्तामनवधिबोधास्तत्र कथं ननु मादृग्बोधाः ।। ५३७ तदपि वयं किमपि जिन त्वयि यद्यपि शक्तिनास्ति तथा मयि । यदियं भक्तिर्मा मौमस्थं देव न कामं कुरुते स्वस्थम् ॥ ५३८ सुरपतिविरचितसंस्तव दलिताखिलमव परमधामलब्धोक्य । कस्तव जन्तुर्गुणगणमघहरचरण प्रवितनुतां हतनतभय ॥ ५३९ जय निखिलनिलिम्पालापकल्प जगतीस्तुतकीतिकलत्रतल्प । जय परमधर्महावतार लोकत्रितयोद्धरणकसार ॥ ५४० जय लक्ष्मीकरकमलाचिताङ्ग सारस्वतरसनटनाटयरङ्ग । जय बोधमध्यसिद्धाखिलार्थ मुक्तिश्रीरमणीरतिकृतार्थ ।। ५४१ जयवन्त हों ॥५३३।। जिनके चरणोंके नखोंकी कान्तिका समूह देवांगनाओंके कानोंमें धारण की गयी कल्पवृक्षकी पुष्पित लताके संस्पर्शसे सुन्दर प्रतीत होता हैं, वे जिन भगवान् जगत् में जयवन्त हो ।।५३४॥ देवेन्द्रोंके मुकुटोंमें लगे हुए मन्दार पुष्पके परागसे जिनके चरण-कमल पाण्डुर हो गये है,जो पाण्डित्यके सर्वोत्कृष्ट स्थान हैं, जिन्होंने बादमें जयलाभ किया हैं,ऐसे कामजेता हे जिनेन्द्र देब! जयवन्त रहें ।।५३५ । जो अल्पज्ञानी विद्वान् तुम्हारे अपरिमित गुणोंका स्तवन करता है, वह निश्चय ही जल्दी में हाथसे सुमेरु पर्वतको तोलनेका प्रयत्न करता है । ५३६ ।। समस्त शास्त्ररूपी समुद्रकी विधिमें चतुर,असीम ज्ञानधारी महामुनि भी जिसका स्तवन करनेमे समर्थ नहीं हो सके, तो मेरे समान अल्पज्ञानी उसका स्तवन कैसे कर सकते है ।।५३७।। हे जिन! यद्यपि मेरेमें आपका स्तवन करनेकी शक्ति नहीं हैं, तथापि कुछ कहता हूँ क्योंकि मेरे मौन रहनेपर आपकी यह भक्ति मुझे स्वस्थ नहीं रहने देती ॥५३८॥ इन्द्रने जिसका स्तवन किया, जिसने समस्त संसार-परिभ्रमणको नष्ट कर दिया, मोक्षके साथ ही जिसने आत्मिक गुणोंको प्राप्त किया, जिसके चरण पापके नाशक हैं,और जिसने विनत मनुष्यके भयको नष्ट कर दिया है एसे हे जिनेन्द्रदेव! कौन प्राणी आपके गुणसमूहका विस्तारसे कथन कर सकता है ।।५३९।। हे समस्त देवोंकी स्तुतिके ग्रन्थरूप, और हे समस्त पृथिवीके द्वारा स्तुत कीर्तिरूपी स्त्रीके विश्रामके लिए शय्यारूप! आपकी जय हो। हे परम धर्मरूपी महलके अवतार और हे तीनों लोकोंका उद्धार करने में समर्थ! आपकी जय हो ।।५४०॥ जिनका अङग लक्ष्मीके कर-कमलोंसे पूजित हैं, जो सारस्वत रसरूपी नटके लिए रंगमंचके तुल्य है,जिनके केवलज्ञानमें समस्त पदार्थ प्रतिभासित है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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