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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १८५ भक्तिनित्यं जिनचरणयोः सर्वसवेत्यु मैत्री सर्वातिथ्ये मम विमवधीवुद्धिरध्यात्मतत्त्वे । सद्विधेषु प्रणयपरता चित्तवृत्ति: पराथें भूयादेतद्भवति भगवन्धाम यावत्त्वदीयम् ।। ५२८ प्राविधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्यान्हसन्निधिरयं मुनिमाननेन । सायन्तनोऽपि समयो मम देव यायानित्यं त्ववाचरणकीर्तनकामितेन ।। ५२९ धर्मेषु धर्मनिरतात्मसु धर्महेतो धर्मादवाप्तमहिमास्तु नपोऽनुकूलः । नित्यं जिनेन्द्रचरणार्चनपुण्यधन्याः कामं प्रजाश्च परमा श्रियमाप्नुवन्तु ।। ५३० (इति पूजाफलम् ) आलस्याद्रपुषो हृषीकहरणाक्षेपतो वात्मन श्चापल्यान्मनसो मतेर्जडतया मान्छेन वाक्सौष्ठवे। यः कश्चित्तव संस्तवेषु समभूवेष प्रमादः स मे मिण्यास्ताननु देवताप्रणयिनां तुष्यन्ति भक्त्या यतः ॥५३१ देवपूजामनिर्माय मुनीननुपचर्य च। यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः ।। ५३२ नमदमरमौलिमण्डलबिलग्नरत्नांशनिकरगगनेऽस्मिन् । अरुणायतेऽघ्रियुगलं यस्य स जीयाज्जिनो देवः ।। ५३३ देवकी अभिषेक पूर्वक पूजा से सहर्ष उपासना कर के मै पुनः उनको श्वेतछत्र, चमर दर्पण आदि मांगलिक द्रव्योंसे आराधना करता हूँ। ५२७।। (इस प्रकार पूजा समाप्त हुई। आगे पूजाका फल बतलाते है-) हे भगवन् ! जबतक आपका परम पदरूप स्थान प्राप्त हो, तबतक सदा आपके चरणों में मेरी भक्ति रहे, सब प्राणियोंमें मेरा मैत्रीभाव रहे, मेरी ऐश्वर्यरत मति सबका आतिथ्य सत्कार करने में संलग्न हो, मेरो बुद्धि अध्यात्म तत्त्व में लीन रहे,ज्ञानीजनोंसे मेरा स्नेह भाव रहे और मेरी चित्तवृत्ति सदा परोपकारमें लगी रहे ।।५२८॥ हे देव! प्रातःकालीन विधि आपके चरण-कमलोंकी पूजासे सम्पन्न हो, मध्यान्ह कालका समागम मुनियोंके आतिथ्य सत्कारम बीते ; तथा सायंकालका भो समय आपके चारित्रके कथन कामनामें व्यतीत हो। ५२९।। धर्मके प्रभावसे राज्यपदको प्राप्त हुआ राजा धर्मके विषयम,धार्मिकोंके विषयमें और धर्मके हेतु चैत्यालय आदिके विषयमें सदा अनुकूल रहे-उनका अहित न करके संरक्षण करे । तथा प्रतिदिन जिनेन्द्र देवके चरणोंकी पूजासे प्राप्त हुए पुण्यसे धन्य हुई जनता यथेच्छ उत्कृष्ट लक्ष्मीको प्राप्त करे ।।५३०।। शरीरके आलस्यसे या इन्द्रियोंके इधर-उधर लंग जानेसे अथवा आत्माकी अन्यमनस्कतासे अथवा मनकी चपलतासे अथवा बुद्धिकी जडतासे अथवा वाणीमें सौष्ठव (शुद्ध स्पष्ट उच्चारण) की कमीके कारण आपके स्तवनमें मुझसे जो कुछ प्रमाद हुआ है,वह मिथ्या हो । क्योंकि देवता तो अपने प्रेमियोंकी भक्तिसे सन्तुष्ट होते हैं ।।५३१।। जो गृहस्थ होते हुए भी देवपूजा किये बिना तथा मुनियोंकी सेवा किये बिना भोजन करता है, वह महापापको खाता हैं ।।५३२।। (पूजनके पश्चात् जिन भगवान्की स्तुति करना चाहिए। अत: स्तुति करते है-) नमस्कार करते हुए देवों के मुकुटोंके समूहमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंके समूहरूपी इस आकाशमें जिनके चरणयुगल सन्ध्याकी लालीकी तरह प्रतीत होते है वे जिनदेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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