SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ श्रावकाचार-संग्रह अवमतरुगहनदहन निकाससुखसंभवामृतस्थानम् । आगमदीपालोकं कलमभवैस्तन्दुलैर्भजामि जिनम् ।। ५१९ स्मररस विमुक्त सूक्ति विज्ञानसमुद्रमुद्रिताशेषमाधीमानसकलहंसंकुसुमशररर्चयामिजिननाथम्।।५२ अर्हन्तममितनीति निरञ्जनं मिहिरमाधिदावाग्नेः । आराधयामि हविषा मुक्तिस्त्रीरमितमानसमनङ्गम् ।। ५२१ भक्त्यानतामराशयकमलवनारालतिमिरमार्तण्डम् । जिनमुपचरामि दीपैः सकलसुखारामकामदमकामम् । ५२२ अनुपमकेवलवपुष सकलकलाविलय वर्तिरूपस्थम् । योगावगम्यनिलयं यजामहे निखिलगं जिनं धूपैः ॥ ५२३ स्वर्गापवर्गसंगतिविधायिनं व्यस्तजातिमृतिदोवम् । व्योमचरामरपतिभिः स्मृतं फलैंजिनपतिमुपासे ॥ ५२४ अम्मश्चन्दनतन्दुलोद्गमहविर्दीपः सधूपैः फल रचित्वात्रिजगद्गुरुं जिनपति स्नानोत्सवानन्तरम् । तस्तौमिप्रजपामि चेतसि बधे कुर्वे श्रुताराधनं । त्रैलोक्यप्रभवं च तन्महमहं कालत्रये श्रद्दधे ॥ ५२५ यज्ञर्मुदावमृथभाग्भिरुपास्य देवं पुष्पाञ्जलिप्रकरपूरितपादपीठम् । श्वेतातपत्रचमरोरुहवर्पणाद्यैराराधयामि पुनरेनमिनं जिनानाम् ।। ५२६ (इति पूजा) तन्दुलोंसे पूजन करता हूँ ।।५१९॥ जिनकी सूक्तियाँ श्रृंगार रससे रहित हैं, जिन्होंने अपने ज्ञानरूपी समुद्रसे सबको आच्छादित किया हैं और जो लक्ष्मीरूपी मानसरोवरके राजहस है, उन जिनेन्द्रदेवकी पुष्षोंसे पूजा करता हूँ ॥५२०॥ अनन्तज्ञानशाली, निर्विकार, दुराशारूपी दावाग्नि (जङगलकी आग) के लिए मेघके समान,निराकार तथा जिनका मन मुक्तिरूपी स्त्रीमें लीन हैं, उन अर्हन्त देवकी नैवेद्यसे पूजा करता हूँ ॥५२१।। भक्तिसे विनम्र हुए देवोंके चित्तरूपी कमलवनका घोर अन्धकार दूर करनेके लिए जो सूर्यके समान हैं, और समस्त सुखोंके लिये उद्यानरूप , तथा मनोरथको पूर्ण करनेवाले है उन कामरहित जिनेन्द्रदेवकी दीपोंसे पूजा करता हूँ ॥५२२॥ अनुपम केवलज्ञान ही जिनका शरीर हैं, समस्त भाव कमोंका विनाश हो जानेपर जो रूप रहता है उसी रूपमें जो स्थित है,जिनके स्थानको योगके द्वारा जाना जा सकता हैं और जो केवलज्ञानके द्वारा सर्वत्र व्यापक है,उन जिनदेवकी मै धूपसे पूजा करता हूँ॥५२३।। जो स्वर्ग और मोक्ष का दाता हैं जन्म-मरणरूपी दोषोंसे रहित है, और विद्याधरों तथा देवोंके स्वामी जिनको स्मरण करते हैं उन जिनेन्द्रदेवकी फलोंसे पूजा करता हूँ।।५२४।। अभिषेक समारोषके पश्चात् तीनों लोकोंके गुरु जिनेन्द्रदेवकी जल,चन्दन,अक्षत, पुष्प, नैवैद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजा करके मैं उनका स्तवन करता हूँ, उन्हें चित्तमें धारण करता हूँ उनका नाम जपता हूँ शास्त्र की आराधना करता हूँ तथा तीनों लोकोंसे उत्पन्न हुए उनके ज्ञानरूपी तेजकी मै तीनों कालोंमें श्रद्धा करता हूँ ।।५२५॥ भावार्थ-अभिषेकके पश्चात् अष्टद्रव्यसे जिनेन्द्रदेव का पूजन करना चाहिए। तथा पूजन के पश्चात् उनका स्तवन, उनके नामका जप, ध्यान तथा शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिए। पुष्पाञ्जलि के समूहसे जिनका पादपीठ-चरणों के पास का स्थान-भरा हुआ हैं उन जिनेन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ...
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy