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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १८३ जन्मस्नेहच्छिदपि जगतः स्नेहहेतुनिसर्गात्पुण्योपाये मृदुगुणमपि स्तब्ध लब्धात्मवृत्तिः । चेतोजाड्यं हरदपि दधि प्राप्तजाड्यस्तभावं जैनस्नानानभवनविधौ मङ्गलं वस्तनोतु ॥ ५१० एलालवङ्गकङ्कोलमालयागरु मिश्रितः । पिष्टः कल्कैः कषायश्च जिनदेहमुपास्महे ।। ५११ नन्द्यावर्तस्वस्तिकफलप्रसूनाक्षतम्बकुशपूलै: : अवतारयामि देवं जिनेश्वरं वर्धमानश्च ।। ५१२ मद्भाविलक्षमौलतिकावनस्य प्रवर्धनाजितवारिपूरैः ।। जिनं चतुभिः स्नपयामि कुम्भनभासदोधेनुपयोधराभैः ॥ ५१३ लक्ष्मीकल्पलते समल्लसजनानन्दै. परं पल्लवैधर्मारामफलैः प्रकामसुभगस्त्वं भव्यसेव्यो भव । बोधाधीश विमुञ्च संप्रति मुहुर्दुष्कर्मधर्मक्लमं त्रैलोक्यप्रमदावहैजिनपतेर्गन्धोदकैः स्नापनात्।।५१४ शविशद्धबोधस्य जिनेशस्योत्तरोदकैः । करोम्यवभथस्नानमत्तरोत्तरसंपदे ।। ५१५ ।। अमृतकृतणिकेऽस्मिन्निजाबीजे कलादले कमले । संस्थाप्य पूजयेयं त्रिभुवनवरदं जिनं विधिना पुण्योपार्जनशरणं पुराणपुरुष स्तवोचिताचरणम् । पुरुहूतविहितसेवं पुरुदेवं पूजयामि तोयेन ।। ५१७ मन्दमदमदनमनंदमन्दरगिरिशिखरमज्जनावसरम । कन्दमुमालतिकायाश्चन्दनचर्चाचितं जिनं कुर्वे ||५१८ देखनेके लिए लालायित हैं, वे धारोष्ण दूधके प्रवाहसे धवल हुए जिनेन्द्रदेवके शरीरका ध्यान करें ॥५०॥ दही जगत के जन्म स्नेहका छेद करनेवाला होनेपर भी स्वभावसे ही स्नेह (घी) का कारण है,पुण्यके साधनमें कोमलता युक्त होते हुए भी स्थिर होकर ही वह आत्मलाभ करता है, अर्थात् दही कोमल होता है और स्थिर होनेपर ही वह जमता हैं तथा चित्तकी जडताको हरनेवाला होते हुए भी स्वयं जडस्वभाव या जलस्वभाव हैं, ऐसा दही जिन भगवान्की अभिषेक विधिमें आपका मंगलकारक हो । ५:०॥ इलायची, लौंग, कङ्कोल, चन्दन और अगुरु मिले हुए चूर्णसे और पकाकर तैयार किये गये काढेसे जिनदेवके शरीरकी उपासना करता हूँ ॥५११।। नन्द्यावर्तक, स्वस्तिक, फल, फूल अक्षत, जल और कुशसमूहसे तथा सकोरोंसे जिनेश्वरदेवकी अवतारणा करता हूँ ।।५१२।। एसे जिनेन्द्र देवका मेरी भावी लक्ष्मीरूपी लताके वनको बढानेवाले जलके पूरसे युक्त तथा कामधेनुके स्तनोंके तुल्य चार कलशोंसे अभिषेक करता हूँ॥५.३ । जिनभगवान्के तीनों लोकोंको आनन्द देनेवाले गन्धोदकके सिञ्चनसे हे लक्ष्मीरूपी कल्पलते! तुम मनुष्योंके आनन्दरूपी पल्लवोंसे उल्लासको प्राप्त होवो । हे धर्मरूपी उद्यान! तुम फलोंसे अत्यन्त सुन्दर होकर भव्यजीवोंके सेवनीय बनो। और हे ज्ञानवान् आत्मा! तुम अब दुष्कर्मरूपी घामके सन्तापको छोडो,अर्थात् बुरे कर्म करना छोड दो और बुरे कर्मोके फलसे मुक्त हो जाओ ।।५१४।। अधिकाधिक सम्पत्तिके लिए विशुद्ध ज्ञानी जिनेन्द्र भगवान्का तालाब आदिसे लाये गये शुद्ध जलसे मै अन्तिम स्नान कराता हूँ ।। ५१५।। अमृत मयी कणिकावाले तथा अपने नामसे अंकित इस सोलह पांखडीके कमलपर तीनों लोकोंको मनवांछित वर देनेवाले जिनेन्द्र भगवानको विधिपूर्वक स्थापित करके पूजना चाहिए ॥५१६।। जो पुण्यके कमानेके लिए आश्रयभूत है, पुराण पुरुष हैं, जिनका आचरण स्तुतिके योग्य हैं, और इन्द्रने जिनकी सेवा की थी, उन प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथकी मैं जलसे पूजा करता हूँ। ५१७।। जो अत्यधिक मदशाली कामका दमन करनेवाले है,सुमेरु पर्वतके शिखरपर जिनका अभिषेक हुआ हैं तथा जो यशरूपी बेलकी जड हैं उन जिनदेवकी चन्दनसे पूजा करता है।५१८॥दोषरूपी वृक्षोंके जङगलको जलानेवाले, उत्तम सुखकी उत्पत्तिके लिए मोक्षके समान तथा आगमरूपी दीपकके प्रकाशक जिनेन्द्रदेवकी सुगन्धित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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