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________________ १८२ श्रावकाचार-संग्रह सोऽयं जिनः सुरगिरिर्ननु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततः कथमियं न महोत्सवश्रीः ॥ ५०३ ( इति संनिधापनम् ) योगेऽस्मिन्नाकनाथ ज्वलन पितृपते नंगमेय प्रचेतो वायो रैदेश शेषोडुपसपरिजना यूयमेत्य ग्रहाग्राः । मन्त्रैर्भूः स्वः सुधाद्यैरधिगतबलयः स्वासु दिक्षूपविष्टाः क्षेपीयः क्षेमदक्षाः कुरुत जिनसवोत्साहिन । विघ्नशान्तिम् ।। ५०४ दैवेऽस्मिन्विहितार्चने निनदति प्रारब्धगीतध्वनावातोद्यैः स्तुतिपाठ मङ्गल रवैश्चानन्दिनि प्राङ्गणे । मृत्स्नागोमय भूतिपिण्ड हरितादर्भप्रसूनाक्षतंरम्भोमिश्च सचन्दनैजनपतेर्नीराजनां प्रस्तुवे ।। ५०५ पुण्यमश्चिरमयं नवपल्लव श्रीश्चेतः सरः प्रमदमन्दसरोजगर्भम् । बागापगा च मम दुस्तरतीरमार्गा स्नानामृतैजिनपते स्त्रिजगत्प्रमोदैः ॥ ५०६ द्राक्षाखर्जूर चोंचेक्षु प्राचीनामलकोद्भवैः । राजादना म्रपूगोत्थैः स्नापयामि जिनं रसः ।। ५०७ - आयु: प्रजासु परमं भवतात्सदैव धर्मावबोधसुरभिश्चिरमस्तु भूपः । पुष्टि विनेयजनता वितनोतु कामं हैयंगवीनसवनेन जिनेश्वरस्य ।। ५०८ येषां कर्मभुजङ्गनिर्विषविध बुद्धिप्रबन्धो नृणां येषां जातिजरामृतिव्युपरमध्यानप्रपञ्चाग्रहः । येषामात्म विशुद्धबोधविभवालोके सतृष्णं मनस्तेधारोष्ण पयः प्रवाहधवलं ध्यायन्तुजेनंवपुः ||५०९ ॥ इन्द्र, जिसपर 'श्री न्ही' लिखा हुआ हैं, ऐसे सिंहासनपर तीनों लोकोंके स्वामी जिनेन्द्रदेवकी मै स्थापना करता हूँ ||५०२ ।। (यही स्थापना हैं । अब सन्निधापनको कहते है - ) यह जिनबिम्ब ही साक्षात् जिनेन्द्रदेव हैं, यह सिंहासन सुमेरुपर्वत है, घटोंमें भरा हुआ जल साक्षात् क्षीरसमुद्रका जल है और आपके अभिषेकके लिए इन्द्रका रूप धारण करनेके कारण मै साक्षात् इन्द्र हूँ तब इस अभिषेक महोत्सवकी शोभा पूर्ण क्यों नहीं होगी ! |५०३ || इस अभिषेक महोत्सव में हे कुशलकर्ता अग्नि, यम, ऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईश तथा शेष चन्द्रमा आदि आठ प्रमुख ग्रह अपने-अपने परिवार के साथ आकर और 'भूः स्वः आदि मन्त्रोंके द्वारा बलि ग्रहण करके अपनीअपनी दिशाओं में स्थित होकर शीघ्र ही जिन अभिषेकके लिए उत्साही पुरुषोंके विघ्नों को शान्त करें ॥ ५०४ ॥ | इस आनन्दपूरित आँगनमें, जो बाजों और स्तुति पाठकों के मांगलिक शब्दोंसे गूंज रहा हैं तथा जिसमें गीतोंकी ध्वनि हो रही हैं, मै इस पूजित जिनबिम्बमें मिट्टी, गोबर, राख, दुर्वा, कुश, फूल, अक्षत, जल तथ चन्दनसे जिनभगवान् की नीराजना ( आरती ) करता हूँ ||५०५ ॥ जिनभगवान् के तीनों लोकोंको हर्षित करनेवाले स्नानजलसे मेरा यह पुण्यरूपी वृक्ष चिरकाल तक नये पल्लवों की शोभाको धारण करे, चित्तरूपी तालाब में हर्षरूपी कमल विकसित हो और मेरी वाणीरूपी नदी के तटका मार्ग दुस्तर हो - उसे कोई पार न कर सके || ५०६ ।। मैं दाख, खजूर, नारियल, ईख, प्राचीन आमलक ( आँवला नामक फल ) केला आम तथा सुपारी के रसोंसे जिनभगवान्का अभिषेक करता हूँ ||५०७ || जिनदेव के घृताभिषेकसे सदैव प्रजा दीर्घजीवी हो, राजा धर्मके ज्ञानसे सुबासित हो और भव्यजन खूब पुष्टिको प्राप्त हों ।। १०८ ।। जिन मनुष्यों की बुद्धिका विलास कर्मरूपी सर्पोको निर्विष करने में संलग्न हैं, जिन मनुष्योंको जन्म, जरा, मरणको दूर करनेवाले ध्यानके विस्तारका आग्रह है तथा जिनका मन आत्माके विशुद्ध ज्ञानरूपी ऐश्वर्यको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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