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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन वोतोपलेपवपुषो न मलानुषजस्त्रलोक्यपूज्यचरणस्य कुतः परोऽध्यः । मोक्षामृते धृतधियस्तव नैव कामः स्नानं ततः कमुपकारमिदं करोतु ॥ ४९७ तथापि स्वस्य पुण्यार्थ प्रस्तुवेऽभिषवं तव । को नाम सूपकारार्थ फलार्थी विहितोद्यमः । ४९० (इति प्रस्तावना) रत्नाम्बुभिः कुशकृशानुभिरात्तशुद्धौ भूमौ भुजङ्गमपतीनमृतरुपास्य। कुर्मः प्रजापतिनिकेतनदिङ्मुखानि दूर्वाक्षतप्रसवदर्भविदभितानि ॥४९९। पाथःपूर्णान्कुम्भान्कोणेषु सुपल्लवप्रसूनार्चान् । दुग्धाब्धीनिव विदधे प्रवालमुक्तोल्वणांश्चतुरः ।।५०० (इति पुराकर्म) यस्य स्थान त्रिभुवन शिरःशेखराने निसर्गात्तस्यामर्त्यक्षितिभूति भवेन्नाद्भुतं स्नानपीठम् । लोकानन्दामृतजलनिर्वारि चैतत्सुधात्वं धत्ते यत्ते सवनसमये तत्र चित्रीयते कः ॥ ५०१ तीर्योदकर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः पीठे पवित्रवषि प्रविकल्पिताधै। लक्ष्मीश्रुतागमनबीजविदर्भगभ संस्थापयामि भुवनाधिपति जिनेन्द्रम् ।। ५०२ (इति स्थापना) मनमें जिसका ध्यान करते है,जिसके द्वारा यह लोक सनाथ हैं, जिसे देवतागण नमस्कार करते हैं, जिससे श्रुत (आगम) का प्रादुर्भाव हुआ हैं, जिसके प्रसादसे मनुष्य पुण्यशाली होते हैं, तथा जिसमें ये सांसारिक दुःख-सुखादि नहीं हैं उस जिनेन्द्र के अभिषेकको मै प्रारम्भ करता हूँ ।।४९६।। हे जिनेन्द्र शारीरिक मलसे रहित होने के कारण आपका मैलसे कोई सम्बन्ध नहीं हैं,आपके चरण तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य है, अतः दूसरा उससे भी उत्कृष्ट कैसे हो सकता है? आपका मन मोक्षरूपी अमतके पानमें निमग्न हैं अतः आप कामसे भी दूर हैं, अतः यह स्नान आपका क्या उपकार कर सकता हैं? अर्थात् स्नान या अभिषेकके तीन प्रयोजन हो सकते हैं, शारीरिक मलको दूर करना, जलार्चनके द्वारा पूज्यताका समावेश तथा गार्हस्थिक कामादि सेवनगत दोषोंकी विशुद्धि । किन्तु जिनेन्द्र देवका परम औदारिक शरीर मल रहित होता है,वे कामादिका भी सेवन नहीं करते है तथा तीनों लोक उनकी पूजा करते हैं अतः जल स्नानसे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं रहता ॥४९॥ फिर भी मैं अपने पुण्यसंचयके लिए आपके अभिषेकको आरम्भ करता हूँ। क्योंकि ऐसा कौन फलार्थी-फलका इच्छुक हैं जो सम्यक् उपकारके लिए प्रयत्न न करना चाहता हो ॥४९८॥ (इस प्रकार प्रस्तावना कर्म समाप्त हुआ। आगे पुराकर्मको कहते है) रत्न सहित जलसे तथा कुश और अग्निसे शुद्ध की गयी भूमिमें दुग्धसे नागेन्द्रोंको संतृप्त करके पूर्वादि दश दिशाओंको दूर्वा, अक्षत,पुष्प और कुशसे युक्त करता हूँ॥४९९॥ वेदी के चारों कोनोंमें पल्लव और फूलोंसे सुशोभित, जलसे भरे हुए चार घटोंको स्थापित करता हूँ, जो मूंगे और मोतीसे युक्त होने के कारण क्षीरसमुद्र के समान हैं ।। '५ ० ०|| जिस जिनेन्द्रका निवासस्थान स्वभावसे ही तीनों लोकोंके मस्तकके ऊपर लोकके अग्रभागमें हैं (क्योंकि प्रत्येक जीव स्वभावसे ऊर्ध्वगामी हैं अतः मुक्त होनेके पश्चात् लोकके अग्रभाग तक जाकर वहीं ठहर जाता हैं) अतः यदि उसका अभिषेक सुमेरु पर्वत पर हो तो उसमें आश्चर्य ही क्या है? इसी प्रकार हे जिनेन्द्र! तुम्हारे अभिषेकके समय लोगोंके आनन्दरूपी क्षीरसमुद्र का यह जल यदि अमृतपनेको प्राप्त होता हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ।।५०१॥ मणिजडित सोनेके घटोंसे लाये गये पवित्र जलसे जो शुद्ध किया गया हैं और फिर जिसे अर्घ दिया गया हैं तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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