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________________ १८० श्रावकाचार-संग्रह चित्ते चित्ते विशति करणेष्वन्तरात्मस्थितेषु स्रोतस्यूते बहिर खिलतो व्याप्तिशून्ये च पुंसि । येषां ज्योतिः किमपि परमानन्दसंदर्भगर्भ जन्मच्छेदि प्रभवति फलैस्तेषु कुर्मः सपर्याम् ॥। ४९० वाग्देवतावर इवायमुपासकानामागामितत्फल विधाविव पुण्यपुञ्जः । लक्ष्मीकटाक्षमधुपागम ने कहेतुः पुष्पाञ्जलिर्भवतु तच्चरणार्चनेन ।। ४९१ ( इत्याचार्यभक्तिः ) इदानीं ये कृतप्रतिमापरिग्रहास्तान्प्रति स्नपनार्चनस्तवजपध्यानश्रुत देवताराधनविधीन् षट प्रोदाहरिष्यामः । तथा हि श्रीकेतनं वाग्वनितनिवासं पुण्यार्जनक्षेत्रमुपासकानाम् । स्वर्गापवर्गागमनैकहेतुं जिनाभिषेकाश्रयमाश्रयामि ।। ४९२ ।। भावामृतेन मनसि प्रतिलब्धशुद्धि: पुण्यामृतेन च तनौ नितरां पवित्रः । श्री मण्डपे विविधवस्तुविभूषिताया वेद्यां जिनस्य सबनं विधिवत्तनोमि ।। ४९३ उदङ्मुखः स्वयं तिष्ठेत्प्राङ्मुखं स्थापयेज्जिनम् ! पूजाक्षणे भवेन्नित्यं यमी वाचंयमक्रियः ।। ४९४ प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना संनिधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ||४९५ ।। यः श्रीजन्मपयोनिधिर्मनसि च ध्यायन्ति यं योगिनो दं भुवनं सनाथममरा यस्मै नमस्कुर्वते । यस्मात्प्रादुरभूच्छ्रुतिः सुकृतिनो यस्य प्रसादाज्जना यस्मिन्नैष भवाश्रयो व्यतिकरस्तस्यारभे स्नापनाम् ।। ४९६ ॥ समान जिन आचार्याका ज्ञानरूपी समुद्र हर्षरूपी जलके द्वारा आत्मारूपी स्थानमें समाता नहीं हैं, इस समस्त लोककी ऐश्वर्य लक्ष्मीको प्राप्त करके भी जिनका चित्त निरीह हैं, उनकी पूजामें अर्पित की गयी धूप हमारे कल्याणके लिए हो ||४८९ ।। चित्तके चित्तमें और इन्द्रियोंके अन्तरात्मा में लीन हो जानेपर तथा इन्द्रियोंके पुंज स्वरूप पुरुषके समस्त बाह्य पदार्थोंसे निर्विकल्प हो जाने पर जिनकी परमानन्दमयी कोई एक अनिर्वचनीय ज्योति जन्म-परम्पराका छेदन करने में समर्थ होती हैं उनकी हम फलोंसे पूजा करते है १४९० ।। सरस्वती देवीके वरके समान और भविष्य में प्राप्त होनेवाले फलके लिए पुण्य समूहके समान यह पुष्पाञ्जलि आचार्यचरणोंका पूजन करने से श्रावकोंकी लक्ष्मी कटाक्षरूपी भ्रमरोंके आगमनका कारण हो । ४९१ ।। ( इस प्रकार आचार्य भक्ति समाप्त हुई) अब जो प्रतिमा में स्थापना करके पूजन करते हैं उनके लिए अभिषेक, पूजन, स्तवन, जप, ध्यान और श्रुतदेवताका आराधन इन छह विधियोंको बतलाते हैं- मैं जिनभगवान्का अभिषेक करनेके लिए जिनबिम्बका सहारा लेता हूँ | जो जिनबिम्ब लक्ष्मीका घर है, सरस्वती देवीका निवास स्थान है, गृहस्थोंके पुण्य कमानेका क्षेत्र हैं और स्वर्ग तथा मोक्षको लानेका प्रमुख कारण हैं ।। ४९२ ।। शुभ भावरूपी जलसे मेरा मन शुद्ध है और पवित्र जलसे मेरा शरीर शुद्ध है अर्थात् मैने शुद्ध जलसे स्नान किया हैं और मेरे मन में शुभ भाव है। मै श्रीमण्डप में अनेक वस्तुओंसे विभूषित वेदीपर विधिपूर्वक जिन भगवान्‌का अभिषेक करता हूँ ।। ४९३ || ऐसी प्रतिज्ञा करके स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुंह करके खडा हो और जिनबिम्बका मुख पूर्व दिशाकी ओर करके उनकी स्थापना करे | तथा पूजाके समय सदा अपने मन, वचन कायको स्थिर रखे || ४९४ ।। देवपूजनके छह प्रकार हैं- प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजाका फल ।। ४९५ ।। पहले प्रस्तावनाको कहते हैं- जो लक्ष्मीके लिए सागर के समान है, योगीजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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