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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन दूरारूढे प्रणिधितरणावन्तरात्माम्बरेऽस्मिन्नास्ते येषां हृदयकमलं मोदनिस्पन्दवृत्तिः । तत्त्वालोकावगमगलितध्वान्तबन्धस्थितीनामिष्टि तेषामहमुपनये पादयोश्चन्दनेन ।। ४८४ येषामन्तस्तदमृतरसास्वादमन्दप्रचारे क्षेत्राधीशे विगतनिखिलारम्भमोगभावः। ग्रामोऽक्षाणामुदुषित इवाभाति योगीश्वराणां कुर्मस्तेषां कलमसदकैः पूजनं निर्ममाणाम् ॥४८५।। देहारामेऽप्युपरतधियः सर्वसंकल्पशान्तेर्येषामूमिस्मयविरहिता ब्रह्मधामामृताप्तेः । आत्मात्मीयानुगविगमाद् वृत्तयः शद्धबोधास्तेषां पुष्पैश्चरणकमलान्यर्चयेयं शिवाय ।। ४८६ येषामङगे मलयजरस: संगमः कर्दमैर्वा स्त्रीबिब्बोकै: पितवनचिताभस्मभिर्वा समानः । मित्रे शत्रावपि च विषये निस्तरङ्गोऽनुषङ्गस्तेषां पूजाव्यतिकरणविधावस्तु भूत्यै हविर्वः ॥४८७ योगाभोगाचरणचतुरे दीर्णकन्दपंद स्वान्ते ध्वान्तोद्धरणसविधे ज्योतिरुन्मेषभाजि । संमोदेतामृतभत इव क्षेत्रनाथोऽन्तरुच्चर्येषां तेषु क्रमपरिचयात्स्याच्छिये व: प्रदीपः ॥ ४८८ येषां ध्येयाशयकुवलयानन्दचन्द्रोदयानां बोधाम्भोधिः प्रमवसलिलैर्माति नात्मावकाशे । लब्ध्वाप्येतामखिल भुवनेश्वर्यलक्ष्मी निरीहं चेतस्तेषामयमपचिती श्रेयसे वोऽस्तु धूपः ॥४८५।। भक्ति करे-) तत्त्वोंके यथार्थ प्रकाशसे तृष्णारूपी अन्धकारको दूरकर देनेवाला जिनकी चित्त. वृतिका प्रचार बाह्य बातोंमें नहीं होता और परिग्रहरूपी समुद्र के उस पार रहता है,तथा शान्तिरूपी समुद्रके इस पार या उस पार रहता हैं । अर्थात् जिनकी चित्तवृत्ति परिग्रहकी भावनासे मुक्त हो चुकी हैं और शान्तिरूपी समुद्र में सदा वास करती हैं, उन आचार्योकी पूजा विधि में अर्पित की गयी जलकी धारा तुम्हारा (हमारा) कल्याण करे ।।४८३।। आत्मारूपी आकाशमें ध्यानरूपी सूर्यके अपनी उन्नत अवःथाको पहुँचनेपर जिनका हृदयकमल हर्षसे निश्चल हो जाता हैं और तत्त्वोंके दर्शन तथा ज्ञानसे ज्ञानावरणादिक कर्मबन्धकी स्थिति गलने लगती है, उनके चरणोंमैं चन्दन अर्पित करके मैं उनकी पूजा करता हूँ ॥४८४'। अध्यात्मरूपी अमृत रसके पान करनेसे बाह्य बातोंमें आत्माकी गतिके मन्द पड जानेपर जिन योगीश्वरोंकी इन्द्रियोंका समूह समस्त आरम्भादिकको छोडकर अन्यत्रगत प्रतीत होता है, उन मोहरहित आचार्योकी हम अक्षतसे पूजा करते है ॥४८५॥ समस्त संकल्पोंके शान्त हो जानेके कारण जो शरीर रूप परिग्रहमें भी ममत्व भाव नहीं रखते, ब्रह्मधामरूपी अमृतकी प्राप्ति हो जानेके कारण जो भूख-प्यासकी पीडाको सहते हुए भी उसका गर्व नहीं करते, आत्मामें भी अपनेपनकी भावनाके न होनेसे जिनकी वृत्तियाँ शुद्ध ज्ञानरूप हैं,मोक्षकी प्राप्ति के लिए उनके चरण-कमलोंकी हम पुष्पसे पूजा करते है ।।४८६।।जिनके. शरीरमें लगाया गया चन्दनका लेप या कीचड, स्त्रीका विलास या स्मशानकी राख, सब समान है,तथा मित्र और शत्र दोनोंके ही विषयमें जो सम भाव रखते है अर्थात मित्रको देखकर जिनका हृदय प्रेमसे उद्वेलित नहीं होता और न शत्रुको देखकर द्वेषसे भडक उठता हैं, उनकी पूजाके लिए अर्पित किया गया नैवेद्य हमारी विभूतिका कारण हो ॥४८५।। जिनका अन्तःकरण अनेक प्रकारके योगोंका पालन करने में दक्ष हो चुका हैं, तथा कामका मद भी जाता रहा हैं और मोह रूपी अन्ध. कार नष्ट होने के करीब है, ज्ञानरूपी ज्योति प्रगट ही होना चाहती है, अतएव जिनका अन्तरात्मा चन्द्रमाकी तरह खूब आल्हाद युक्त हैं, उनके चरणोंमें अर्पित किया गया दीपक हमारी लक्ष्मीका कारण हो ।।४८८॥ ध्येयसे युक्त मनरूपी कुवलय (नीलकमल और पृथ्वीमण्डल ) के लिए चन्द्रोदयके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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