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श्रावकाचार-संग्रह
इत्थं येऽत्र समुद्रकन्दरसरः स्रोतस्विनीभून मो- द्वीपाद्रिद्रुमकाननादिषु धृतध्यानावधानर्द्धयः । कालेषु त्रिषु मुक्तिसंगमजुषः स्तुत्यास्त्रिभिर्विष्टपैस्ते रत्नत्रयमङ्गलानि ददतां भव्येषु रत्नाकराः
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।। ४७८
( इति सिद्धभक्तिः ) भीमव्यन्तरमर्त्य भास्करसुरश्रेणीविमानाश्रिताः स्वर्ज्योतिः कुलपर्वतान्तरधरारन्धप्रबन्धस्थितीः । वन्दे तत्पुरपालमौलिविलसद्रत्नप्रदीपार्चिताः साम्राज्याय जिनेन्द्र सिद्धगणभृत्स्वाध्यायिसाध्वाकृती :
समवसरणवासान् मुक्तिलक्ष्मीविलासान् सकलसमयनाथान् वाक्यविद्यासनाथान् । भवनिगल विनाशोद्योगयोगप्रकाशान् निरुपमगुणभावान् संस्तुवेऽहं क्रियावान् ।। ४८०
।। ४७९
( इति चैत्यभक्तिः )
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( इति पञ्चगुरुभक्तिः )
भवदु खानलशान्तिर्धर्मामृतवर्षजनितजनशान्तिः । शिवशर्मा शान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः ।। ४८१
( इति शान्तिभक्तिः ) मनोमात्रोचितायापि यः पुण्याय न चेष्टते । हताशस्य कथं तस्य कृतार्थाः स्युर्मनोरथाः ॥ ४८२ येषां तृष्णातिमिरभिदुरस्तत्त्वलोकावलोकात् पारेडवारे प्रशमजलधेः संगवार्धः परेऽस्मिन् । बाह्यव्याप्तिप्रसरविधुरश्चित्तवृत्तिप्रचारस्तेषामचविधिषु भवताद्वारिपूर: श्रिये वः ।। ४८३
उन्हें नमस्कार किया हैं । इस प्रकार समुद्र, गुफा, तालाब, नदी, पृथ्वी, आकाश, द्वीप, पर्वत, वृक्ष और वन आदिमें ध्यान लगाकर जो अतीत कालमें मुक्त हो चुके, वर्तमानमें मुक्त हो रहे है और भविष्य में मुक्त होंगे, तीनों लोकोंके द्वारा स्तुति करनेके योग्य वे भव्य शिरोमणि सिद्ध भगवन्त हमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी मङगलको देवें ॥ ४७८ ।। ( इस प्रकार सिद्धभक्ति समाप्त हुई । ) ( फिर चैत्य भक्ति करे - ) भवनवासी और व्यन्तरोंके निवासस्थानोंमें, मर्त्यलोक में, सूर्य और देवताओंके श्रेणी विमानों में, स्वर्गलोक में, ज्योतिषी देवोंके विमानोंमें, कुलाचलोंपर, पाताल लोक तथा गुफाओंमें जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठीकी प्रतिमाएँ है, जिन्हें उन स्थानोंके रक्षक अपने मुकुटोंमें जडे हुए रत्नरूपी दीपकों से पूजते है, मैं साम्राज्य के लिए उन्हें नमस्कार करता हूँ ||४७९ | | ( इस प्रकार चैत्य भक्ति समाप्त हुई । ) ( फिर पञ्च गुरुओं की भक्ति करे - ) समवशरण में विराजमान अर्हन्तोंको, मुक्तिरूपी लक्ष्मीसे आलिंगित सिद्धोंको, समस्त शास्त्रोंके पारगामी आचार्योको, शब्दशास्त्रमें निपुण उपाध्यायों को और संसार रूपी बन्धनका विनाश करनेके लिए सदा उद्योगशील, योगका प्रकाश करनेवाले और अनुपम गुणवाले साधुओंको क्रिया कर्म में उद्यत मै नमस्कार करता हूँ ||४८० । ( इस प्रकार पञ्चगुरुकी भक्ति कर के फिर शान्ति भक्ति करे - ) संसार के दुःखरूपी अग्निको शान्त करने वाले, और धर्मामृतकी वर्षा करके जनतामें शान्ति करनेवाले तथा मोक्षसुखके विघ्नोंको शान्त - नष्ट कर देनेवाले शान्तिनाथ भगवान् शान्ति करें ।। ४८१ ।। जो केवल मानसिक संकल्पसे होने योग्य पुण्यबन्धके लिए भी प्रयत्न नहीं करता, उस हताश मनुष्य के मनोरथ कैसे पूर्ण हो सकते हैं? ॥४८२|| (फिर आचार्य
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