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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १७७ पुष्पं त्वदीयचरणार्चनपीठसङगाच्चूडामणीभवति देव जगत्त्रयस्य । अस्पृश्यमन्यशिरसि स्थितमप्यतस्ते को नाम साम्यमनुशास्तु रवीश्वराद्यैः ।। ४७३ मिश्यामहान्धतमसावृतमप्रबोधमेतत्पुरा जगदभूद्भवगर्तपाति । तद्देव दृष्टिहृदयाब्जविकासकान्तः स्याद्वादरश्मिभिरथोद्धृतदांस्त्वमेव ॥४.४ पादाम्बुजद्वयमिदं तव देव यस्य स्वच्छे मनःसरसि संनिहितं समास्ते । तं श्री: स्वयं भजति तं नियतं वृणीते स्वर्गापवर्गजननी च सरस्वतीयम् ।। ४७५ ( इत्यर्हद्भक्तिः ) सम्यग्ज्ञानत्रयेणप्रविदितनिखिलज्ञेयतत्त्वप्रपञ्चा:प्रोदय ध्यानवातैः सकलमघरजःप्राप्तकैवल्यरूपाः। कृत्वा सत्त्वोपकारंत्रिभुवनपतिभिर्दत्तयात्रोत्सवा ये ते सिद्धाः सन्तु लोकत्रयशिखरपुरीवासिनः सिद्धये __ वः ॥ ४७६ दानज्ञानचरित्रसंयमनययप्रारम्भगर्भ मनः कृत्वान्तर्बहिरिन्द्रियाणि मरुतः संयम्य पञ्चापि च । पश्चाद्वीतविकल्पजालमखिलं भ्रश्यत्तमःसंतति ध्यानं तत्प्रविधाय ये च मुमुचुस्तेभ्योऽपि बद्धोऽञ्जलिः ॥४७७ से रहित हो, तुम्हारे वचन सुनयरूप हैं-किसी वस्तुके विषयमें इतर दृष्टिकोणोंका निराकरण न करके विवक्षित दृष्टिकोणसे वस्तुका प्रतिपादन करते हैं तथा तुम्हारे द्वारा बतलायी गयी सब विधि प्राणियोंके प्रति दयाभावसे पूर्ण है। फिर भी लोक यदि तुमसे सन्तुष्ट नहीं होते तो इसका कारण उनका कर्म हैं। जैसे उल्लू को सूर्यका तेज पसन्द नहीं है किन्तु इसमें सूर्यका दोष नहीं हैं बल्कि उल्लूके ही कर्मोका दोष हैं ।।४७२।। हे देव! तुम्हारे चरणोंकी पूजाके पादपीठ संसर्ग-मात्रसे फूल तीनों लोकोंके मस्तकका भूषण बन जाता हैं अर्थात् उस फूलको सब अपने सिरसे लगाते है। और दूसरोंके सिरपर भी रखा हुआ फूल अस्पृश्य माना जाता है । अतः अन्य सूर्य रुद्रआदि देवताओंसे तुम्हारी क्या समानता की जावे ॥४७३।। हे देव! पहले मिथ्यात्वरूपी गाढ अन्धकारसे आच्छादित होने के कारण ज्ञानशून्य होकर यह जगत् संसाररूपी गढे में पड़ा हुआ था । उसका नेत्र-कमल और हृदय-कमलको विकसित करनेवाली स्याद्वादरूपी किरणोंके द्वारा तुमने ही उद्धार. किया है ॥४७४॥ हे देव! जिसके मनरूपी स्वच्छ सरोवर में तुम्हारे दोनों चरणकमल विराजमान हैं उसके पास लक्ष्मी स्वयं आती है तथा स्वर्ग और मोक्षको यह सरस्वती नियमसे उसे वरण करती है ।।४७५।। (इस प्रकार अर्हद्भक्तिको करके सिद्ध भक्ति को करे) जिन्होंने अपनी छमस्थ अवस्थामें मति, श्रुत और अवधिज्ञानके द्वारा सब ज्ञेय तत्त्वोंको विस्तारसे जाना, फिर ध्यानरूपी वायुके द्वारा समस्त पापरूपी धूलिको उडाकर केवलज्ञान प्राप्त किया; फिरइन्द्रादिकके द्वारा किये गये बडे उत्सवके साथ सर्वत्र विहार करके जीवोंका उपकार किया, तीनों लोकोंके ऊपर विराजमान वे सिद्ध परमेष्ठी हम सबकी सिद्धिमें सहायक हों ॥४७॥ मनको दान, ज्ञान, चारित्र,संयम आदिसे युक्त करके और अन्तरंग तथा बहिरंग इन्द्रियों और प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पाँचों वायुओंका निरोध करके फिर अज्ञानरूपी अन्धकारकी परम्पराको नष्ट करनेवाले निर्विकल्प ध्यानको करके जो मुक्त हुए उन्हें भी मैं हाथ जोडता हूँ॥४७७।। भावार्थपहले जो तीर्थङ्कर होकर सिद्ध हुए नमस्कार किया है। इसमें जो सामान्य जन सिद्ध हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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