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________________ १७६ श्रावकाचार-संग्रह ज्ञानं दुर्भगदेहमण्डनमिव स्यात्स्वस्य खेदावहं धत्ते साधन तत्फलश्रियमयं सम्यक्त्वरत्नाकरः। कामं देव यदन्तरेण विफलास्तास्तास्तपोभूमयस्तस्मै त्वच्चरितायसंयमदमध्यानादिधाम्मेनमः।।४६६ यच्चिन्तामणिरीप्सितेषु वसतिः सौरूप्यसोभाग्ययो: श्रीपाणिग्रहकौतुकं फुलबलारोग्यागमे संगमः । यत्पूर्वेश्चरितंसमाधिनिधिमिर्मोक्षाय पश्चात्मकंतञ्चारित्रमहंनम मिविविधं स्वर्गापवर्गाप्तये।।४६७ हस्ते स्वर्गसुखान्यतकितभवास्ताश्चक्रवतिश्रियो देवाः पादतले लुठन्ति फलति द्यौः कामितं सर्वतः । कल्याणोत्सवसम्पदः पुनरिमास्तस्यावतारालये प्रागेवावतरन्ति यस्य चरितैजैनः पवित्रं मनः।।४६८ ( इति चारित्रभक्ति: ) बोधोऽवधिः श्रुतमशेषनिरूपितार्थमन्तबहिःकरणजा सहजा मतिस्ते । इत्थं स्वतः सकलवस्तुविवेकबुद्धेः का स्याज्जिनेन्द्र भवतः परतो व्यपेक्षा । ४६९ ध्यानावलोकतिमिरप्रताने तां देव केवलमयी श्रियमादधाने। आसीत्त्वयि त्रिभुवनं मुहुरुत्सवाय व्यापारमन्थरमिवैकपुरं महाय ।। ४७० छत्रं दधामि किमु चामरमुत्क्षिपामि हेमाम्बुजान्यथ जिनस्य पदेऽर्पयामि । इत्थं मुदामरपतिः स्वयमेव यत्र सेवापरः परमहं किम् वच्मि तत्र ।। ४७१ त्वं सर्वदोषरहित: सुनयं वचस्ते सत्त्वानुकम्पनपरः सकलो विधिश्च । लोकस्तथापि यदि तुष्यति न त्वयीश कर्मास्य तन्ननु रवाविव कोशिस्य ॥ ४७२ करनेवाले, स्वर्ग और मोक्ष नगरका मार्ग बतलानेवाले तथा तीनों लोकोंके लिए मंगलकारक जैन आगमको सदा नमस्कार करता हूँ ।।४६५।। (इस प्रकार ज्ञानकी भक्ति करके फिर चारित्रकी भक्ति करे-)जिसके बिना अभागे मनुष्यके शरीरमें पहनाये गये भूषणोंकी तरह ज्ञान खेदका ही कारण होता हैं,तथा सम्यक्त्व रत्नरूपी वृक्ष ज्ञानरूपी फलकी शोभाको ठोक रोतिसे धारण नहीं करता और जिसके न होनेसे बडे-बडे तपस्वी भ्रष्ट हो गये, हे देव! संयम,इन्द्रियनिग्रह और ध्यान आदिके आवास उस तुम्हारे चारित्रको मै नमस्कार करता हूँ।।४६६।। जो इच्छित वस्तुओंको देने के लिए चिन्तामणि है,सौन्दर्य और सौभाग्यका घर हैं, मोक्ष रूपी लक्ष्मीके पाणिग्रहणके लिए कंकणबन्धन हैं और कुल, बल और आरोग्यका संगम स्थान है अर्थात् तीनोंके होनेपर ही चारित्र धारण करना संभव होता है, और पूर्वकालीन योगियोंने मोक्षके लिए जिसे धारण किया था, स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिके लिए उस पाँच प्रकारके चारित्रको मै नमस्कार करता हूँ।४६७।। जिसका मन जैनाचारसे पवित्र है, स्वर्गके सुख उनके हाथ में है, चक्रवर्तीकी विभूतियाँ अकस्मात् उसे प्राप्त हो जाती है, देवता उसके पैरोंपर लोटते हैं, जिस दिशामें वह जाता हैं वही दिशा उसके मनोरथको पूर्ण करती हैं और जहाँ वह जन्म लेता हैं उसके जन्म लेनेसे पहिलेसे ही वहाँ कल्याणक उत्सव मनाये जाते हैं ॥४६८।। (इस प्रकार चारित्र भक्ति को करके फिर अर्हन्त भक्तिको करे ) हेजिनेन्द्र आपको जन्मसे ही अन्तरंग और बहिरंग इन्द्रियोंसे होनेवाला मतिज्ञान, समस्त कथित वस्तुओंको विषय करनेवाला श्रुनज्ञान और अवधिज्ञान होता हैं,इस प्रकार आपको स्वतः ही सकल वस्तुओंका ज्ञान है तब परकी सहायताकी आपको आवश्यकता ही क्या है? ।।४६ ॥ हे देव! ध्यानरूपी प्रकाशके द्वारा अज्ञानरूपी अन्धकारका फैलाव दूर होनेपर जब आपने केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीको धारण किया तो तीनों लोकोंने अपना काम छोडकर एक नगरकी तरह महान् उत्सव किया ।।४७०॥ 'छत्र लगाऊँ या चमर ढोरूँ, अथवा जिनदेवके चरणोंमें स्वर्णकमल अर्पित करूँ' इस प्रकार जहाँ इन्द्र स्वयं ही हर्षित होकर सेवाके लिए तत्पर है वहाँ मैं क्या कहूँ ।।४७१।। हे देव! तुम सब दोषों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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