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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १७५ ते कुर्वन्तु तपांसि दुर्धरधियो ज्ञानानि सञ्चिन्वतां वित्तं वा वितरन्तु देव तदपि प्रायो न जन्मच्छिदः । एषा येषु न विद्यते तव वचः श्रद्धावधानोदुरा । दुष्कर्माङ्करकुञ्जवनदहनद्योतावदाता रुचिः ।। ४६१ संसाराम्बुधिसेतुबन्धमसमप्रारम्भलक्ष्मीवन-- प्रोल्लासामतवारिवाहमखिलत्रैलोक्यचिन्तामणिम् । कल्याणाम्बुजषण्डसंभवसरः सम्यक्त्वरत्नं कृती यो धत्ते हृदि तस्य नाथ सुलभा: स्वर्गापवर्गश्रियः ।। ४६२ - (इति दर्शनभक्तिः ) अत्यल्पायतिरक्षजा मतिरियं बोधोऽवधिः सावधिः साश्चर्यः क्वचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनःपर्ययः । दुष्प्रापं पुनरद्य केवलमिदं ज्योतिः कथागोचरं माहात्म्यं निखिलार्थगे तु सुलभे कि वर्णयामः श्रुतेः ॥ ४६३ यद्देवैः शिरसा धृतं गणधरैः कर्णावतंसीकृतं न्यस्तं चेतसि योगिभिनॅपवरैराघ्रातसारं पुनः । हस्ते दृष्टिपथे मुख च निहितं विद्याधराधीश्वरै स्तत्स्याद्वावसरोरुहं मम मनोहंसस्य भूयान्मुदे ॥ ४६४ मिण्यातमःपटलभेदनकारणाय स्वर्गापवर्गपुरमार्गनिबोधनाय: तत्तत्त्वभावनमना: प्रणमामि नित्यं त्रैलोक्यमङ्गलकराय जिनागमाय ।। ४६५ ( इति ज्ञानभक्तिः । करता हूँ ॥४६०।। हे देव! जिनकी आपके वचनोंम एकनिष्ठ श्रद्धापूर्ण निर्मल रुचि नहीं है, जो रुचि दुष्कर्म रूपी अंकुरोंके समहको भस्म करने के लिए वज्राग्निके प्रकाशकी तरह निर्मल हैं, वे दुर्बुद्धि कितनी ही तपस्या करें,कितना ही ज्ञानार्जन करें और कितना ही दान दें, फिर भी जन्मपरम्परा का छेदन नहीं कर सकते ।।४६।। हे नाथ! संसार रूपी समुद्र के लिए सेतुबन्धके समान, क्रमसे उत्पन्न होने वाले रत्नत्रय रूपी वनके विकासके लिए अमतके मेघके समान तीनों लोकोंके लिए चिन्तामणि रत्नके समान और कल्याणरूपी कमल समूहकी उत्पत्तिके लिए तालाबके तुल्य, सम्यक्त्वरूपी रत्नको जो पुण्यात्मा हृदयमें धारण करता हैं उसे स्वर्ग और मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति सुलभ है ।।४६२।। इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानका विषय बहुत थोडा है। अवधिज्ञान भी द्रव्य क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाको लेकर केवल रूपी पदार्थोको ही विषय करता हैं। मनःपर्यय का भी विषय बहुत थोडा हैं और वह भी किसी मुनिके हो जाये तो आश्चर्य ही है। केवलज्ञान महान् हैं किन्तु उसकी प्राप्ति इस कालमें सुलभ नहीं हैं । एक श्रुतज्ञान ही ऐसा हैं जो समस्त पदार्थोको विषय करता हैं और सुलभ भी हैं, उसकी हम क्या प्रशंसा करें ।।४६३॥ जिसे देवोंने सिरपर धारण किया,गणधरोंने अपने कानका भूषण बनाया,मुनियोंने अपने हृदयमें रखा, राजाओंने जिसका सार ग्रहण किया और विद्याधरोंके स्वामियोंने अपने हाथमें,आँखोंके सामने और मुखमें स्थापित किया वह स्याद्वादश्रुत रूपी कमल मेरे मानसरूपी हंसकी प्रसन्नताके लिए हो ।.४६४।। ... आगममें कहे हुए तत्त्वोंकी मनमें भावना करता हुआ मैं मिथ्यात्व रूपी अन्धकारके पटलको दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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