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________________ १८८ श्रावकार - संग्रह विज्ञानप्रमुखाः सन्ति विमुचि न गुणाः किल यस्य नयोऽत्र वाचि । तस्यैव पुमानपि नैव तत्र वाहाद्दहनः क इहापरोऽत्र ।। ५४८ धरणीधरधरणिप्रभृति सृजति ननु निपगृहादि गिरीशः करोति । चित्रं तथापि यत्तद्वचांसि लोकेषु भवन्ति महायशांसि ।। ५४९ पुरुषत्रयमबलासक्तमूत्ति तस्मात्परस्तु गतकायकीर्तिः । एवं सति नाथ कथं हि सूत्रमाभाति हिताहितविषयमत्र ।। ५५० सोऽहं योऽभूवं बालवयसि निश्चिन्वन्क्षणिकमतं जहासि । सन्तानोऽप्यत्र न वासनापि यद्यन्वयभावस्तेन नापि ।। ५५१ नहीं मानता। उसके मतसे ज्ञान जड प्रकृतिका धर्म हैं । इसीसे मुक्तावस्थामें चैतन्यके रहनेपर भी वह ज्ञानका अस्तित्व नहीं मानता। इसी बातको लेकर ऊपर ग्रन्थकारने सांख्यमतकी आलोचना की है । चार्वाकगुरु बृहस्पति पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु तत्त्वसे ज्ञान बतलाता है किन्तु उनसे विरुद्ध धर्मवाले आत्मामें ज्ञान नहीं बतलाता । यह उस चार्वाकका महत्पाप है ।। ५४७ ॥ भावार्थ - चार्वाक आत्मा नहीं मानता। उसका मत है कि पृथिवी जल आदि भूतोंके मिलनेसे एक शक्ति उत्पन्न हो जाती हैं जिसे लोग आत्मा कहते है और शरीर के नष्ट होनेपर उसके साथ ही वह शक्ति भी नष्ट हो जाती है । किन्तु पञ्चभूत और आत्माका स्वभाव बिलकुल अलग है. ऐसा नियम हैं कि जो जिससे उत्पन्न होता है उसके गुण उसमें पाये जाते है, मगर पञ्चभूतोंका एक भी गुण आत्मामें नहीं पाया जाता और जो गुण आत्मामें पाये जाते है उनकी गन्ध भी पञ्चभूतों में नहीं मिलती हैं । फिर भी ज्ञानको आत्माका गुण नहीं मानता और उसे पञ्चभूतका कार्य बतलाता हैं । उसका कथन ठीक नहीं है । जिस सांख्यका यह सिद्धान्त है कि मुक्त आत्मामें ज्ञानादिक गुण नहीं है उसके मत में आत्मा भी नहीं ठहरता; क्योंकि जैसे बिना उष्णगुण के अग्नि नहीं रह सकती वैसे ही ज्ञानादिक गुणोंके बिना आत्मा भी नहीं रह सकता ।। ५४८ । ( इस प्रकार सांख्य मतकी आलोचना करके ईश्वरकी आलोचना करते हैं -) महेश्वर पृथ्वी, पर्वत आदि को तो बनाता हैं किन्तु मकान, घट आदि को नहीं बनाता। आश्चर्य हैं फिर भी उसके वचन लोकमें प्रसिद्ध हो रहे हैं ।। ५४९ ।। भावार्थ - आशय यह हैं कि यदि ईश्वर पृथ्वी, पर्वत आदि को बना सकता है तो घट, पट आदि को भी बना सकता हैं फिर उसके लिए कुम्हार और जुलाहे आदि की जरूरत नहीं होनी चाहिए। जैसे उसने मनुष्योंके लिए पृथ्वी आदि की सृष्टि की, वैसे ही वह इन चीजोंको क्यों नहीं बना देता । इससे मालूम होता है कि जगत्का कोई रचयिता नहीं है, आश्चर्य है कि फिर भी मनुष्य उसकी बातको माने जाते है । ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो तिलोत्तमा, लक्ष्मी और गोरीमें आसक्त है तथा जो परम शिव है वह कायरहित हैं । हे नाथ! ऐसी स्थिति में उनसे हित और अहितको बतलानेवाले सूत्रोंका उद्गम कैसे हो सकता है ।। ५५०॥ ( इस प्रकार वैदिक मतकी आलोचना करके बौद्ध मतकी आलोचना करते हैं -) जो मैं बचपन में था वही मैं हूं ऐसा निश्चय करने से क्षणिक मत नहीं ठहरता । यदि कहा जाये कि सन्तान या वासनासे ऐसी प्रतीति होती हैं कि मैं वही हूँ तो न तो सन्तान ही बनती हैं और न वासना ही सिद्ध होती हैं । यदि ऐसा मानते हो कि पूर्व क्षणका उत्तर क्षणमें अन्वय पाया जाता है तो आत्माको ही क्यों नहीं मान लेते । तथा इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला निर्विकल्प ज्ञान तो विचारक नहीं हैं और जो सविकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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