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________________ १२० श्रावकाचार-संग्रह सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य। मनसः सम्यग्दण्डो गुप्नीनांत्रितयमवगन्तव्यम्।।२०२ सम्यग्गमनागमनं सम्यग्माषा तथषणा सम्यक् । सम्यग्ग्रहनिक्षेपो व्युत्सर्गः सम्यगिति समितिः।।२०३ धर्म: सेव्यः क्षान्तिप॑दुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् । आकिञ्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ।। २०४ अध्रु वमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमास्रवो जन्म। लोकवृषबोधिसंवर निर्जरा: सततमनुप्रेक्षाः ।।२०५ क्षत्तृष्णा हिममष्णं नग्नत्वं याचनाऽरतिरलामः । दंशो मशकादीनामाकोशो व्याधिदुःखमङ्गमलम ।। २०६ स्पर्शश्च तणादीनामज्ञानमदर्शन तथा प्रज्ञा। सत्कारपुरस्कारः शय्या चर्या वधो निषद्या स्त्री।। २०७ द्वाविशतिरप्यते परिषोढव्या परीषहाः सततम् । मंक्लेशमुक्तमनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन ।। २०८ इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषता ।। २०९ बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य । पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तध्यं सपदि परिपूर्णम् । २१० असमग्न भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ।। २२१ स्तवन,वन्दना,प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । गृहस्थको यशाशक्ति इन्हें भी करना चाहिए २०१।। मुनिजन तीन गुप्तियों को धारण करते हैं-मनोगुप्ति-मनका सम्यक् निग्रह, वचनगप्ति-वचनका सम्यक् निरोध और कायगुप्ति-कायका सम्यक् नियमन । गृहस्थकीभी यशाशक्ति मन-वचन-कायको वशमें रखना चाहिए ।।२०२॥ साधु पांच समितियोंका पालन करते है-ईर्यासमिति-सावधानीपूर्वक गमनागमन करना, भाषासमिति-सम्यक् भाषा बोलना, एषणासमिति. आहार की शुद्धि रखना, आदाननिक्षेपणसमिति-देख-शोधकर उपकरणादिको लेना और रखना, तथा व्यत्सर्गसमिति-निर्जन्तु स्थानपर मल-मूत्रादिको क्षेपण करना । गृहस्थको भी उक्त सभी कार्यो में यथासम्भव यावधानी रखना चाहिए ॥२०३।। साधुजन उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव शौच,सत्य, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मोको धारण करते है । श्रावक भी तथाशक्ति इनको धारण करें ।।२०४।।अनित्य, अशरण, जन्म (संसार) एकत्व अन्यत्व, अशचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मभावना, इन बारह अनुप्रेक्षाओंका भी निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए ॥२०५।। मुनिजन इस बाईस परीषहोंको सदा सहन करते हैक्षधा, तृषा, शीत, उष्ण, नग्नता, याचना, अरति, अलाभ, दंशमशक, आक्रोश, रोग, मल, तणस्पर्श, अज्ञान, अदर्शन, प्रज्ञा, सत्कार पुरस्कार, शय्या, चर्या, वध, निषद्या और स्त्रीपरीषह । संसार-संक्लेशके निमित्तोंसे भयभीत श्रावकों संक्लेशसे विमुक्तचित्त होकर ये बाईस परीषह भी यथासंभव सदा सहन करना चाहिए ।।२०६-२०८।। इस प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप यह रत्नत्रयधर्म निराबाध मुक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले गृहस्थको विकल (एकदेश) रूपसे भी प्रतिसमय निरन्तर परिपालन करना चाहिए ॥२०॥पुनः नित्य उद्यमशील गृहस्थोंको बोधिलाभका अवसर पाकर और मुनियोंका पद अवलम्बनकर इस रत्नधर्मको शीघ्र ही परिपूर्ण करना चाहिए ।।२१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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