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________________ पुरुषार्थसिद्धययुपाय १२१ येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१२ येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य डन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१३ येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति । २१४ योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात्। दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च।।२१५ दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ।। २१६ सम्यकचारित्राभ्यां तीर्थङ्कराहारकर्मणो बन्धः । योऽप्युपदिष्ट: समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ।। २१७ सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थङ्कराहार-बन्धको भवतः । योगकषायो नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ।। २१८ ननु कथमेवं सिद्धयति देवायुः प्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः । सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ।। २.९ रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्य शुभोषयोगोऽयमपराधः ।। २२० अपूर्ण रत्नमय धर्मको धारण करनेवाले पुरुषके जो कर्म-बन्ध होता हैं, वह विपक्षी रागकृत है, रत्नत्रय-कृत नहीं हैं, जो मीक्षका उपाय हैं, कर्मबन्धनका उपाय नहीं है ।। २११ ।। भावार्थ-एक देश या अपूर्ण रत्नमय धर्मके धारक सम्यग्दृष्टि पुरुषके शुभ भावके कारण जो पुण्यबन्ध होता हैं, उसका रत्नत्रय परिणाम मोक्षका ही कारण हैं। इस आत्माके जिस अंशसे सम्यग्दर्शन हैं,उस अंशसे उसके कर्मबन्ध नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग हैं,उस अंशसे इसके कर्म-वन्ध होता हैं।।२१२।। जिस अंशसे सम्यग्ज्ञान हैं, उस अंशसे उसके कर्म-बन्ध नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग है,उस अंशसे इसके कर्म-बन्ध होता हैं ॥२१३॥ जिस अंशसे सम्यक्चरित्र हैं, उस अंशसे इसके कर्म-बन्ध नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग हैं, उस अंशसे इसके कर्म-बन्धहोता है।।२१४।। मन-वचन-कायके परिस्पन्दरूप योगसे प्रदेश बन्ध (और प्रकृति बन्ध) होता है,तथा कषायसे स्थितिबन्ध (और अनुभागबन्ध) होता है । सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र न योगरूप हैं और न कषायरूप हैं। (अतः रत्नत्रयधर्म-परिणाम जीवके किसी भी कर्म-बन्धका कारण नहीं होता हैं ॥२१५॥ आत्मस्वरूपका विनिश्चय सम्यग्दर्शन हैं, आत्मस्वरूपका परिज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जाता हैं और आत्मस्वरूपमें अवस्थान सम्यक्चारित्र हैं। फिर इन तीनोंसे कर्मबन्ध कैसे हो सकता हैं? अर्थात् रत्नत्रयसे कर्मबन्ध नहीं होता ।।२१६॥ आगममें जो सम्यग्दर्शनसे तीर्थकर प्रकृतिका और सम्यक्चारित्रसे आहारक-प्रकृतिका कर्म-बन्ध कहा गया है,वह भी नय वेत्ताओं को दोषके लिए नहीं है ।।२१७।। क्योंकि सम्यक्त्व और चारित्रके होते हुए तज्जातीय योग और कषाय तीर्थकर और आहारक प्रकृतिका बन्ध करनेवाले होते है; यदि तज्जातीय योग और कषाय नहीं होते हैं, तो सम्यक्त्व और चारित्र उन दोनों प्रकृतियोंके बन्धक नहीं होते है । वस्तुतः तीर्थकर और आहारक प्रकृतिके बन्धके समय सम्यक्त्व और चारित्र तो उदासीन रूपसे ही रहते है।।२१८॥ यहाँ कोई शंका करता है कि फिर रत्नत्रयधारक मुनिवरोंके सर्वजन-सुप्रसिद्ध यह देवायु आदिक पुण्य-प्रकृतियोंका बन्ध किस प्रकारसे सिद्ध होता है।।२१९। ग्रन्थकार उक्त शंकाका समा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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