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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २९३ तत्रैव वासरे जातः पूर्वकेणात्मना विना । अशिक्षितः कथं बालो मुखमर्पयति स्तने ।। १६ भूतेभ्यो येन तेभ्योऽयं चेतनो जायते कथम् । विभिन्नजातितः कार्य जायमानं न दृश्यते ।। १७ प्रत्येक युगपद्वै (ते? ) भ्यो भूतेभ्यो जायते भवी । विकल्पे प्रथमे तस्य तावत्त्वं केन वार्यते ।। १८ विकल्पे स द्वितीयेऽपि कथमेकस्वभावकः । मिन्नस्वभावकरेभिर्जन्यते वद चेतनः ।। १९ चेतनो येन तेभ्योऽपि मतेभ्यो न विरुध्यते । भिन्नानां मौक्तिकादीनां तोयादिभ्योऽपि दर्शनात २० तदयुक्तं यतो मुक्तातोयादीनां विलोक्यते । एकपोलकी जातिभिन्नताऽतः कुतस्तनी। २१ यतः पिष्टोदकादिभ्यो मदशक्तिरचेतना । सम्भूताऽचेतनेभ्योऽतो दृष्टान्तोऽस्ति न चेतने ।। २२ न शरीरात्मनोरवयं वक्तव्यं तत्त्ववेदिभिः । शरीरे तदवाथेऽपि जीवस्यानुपलब्धितः ॥ २३ होता हैं । पूर्वपर्यायवों चैतन्य उत्तरपर्यायवर्ती चैतन्यका कारण हैं और उत्तरपर्यायरूप चैतन्य पूर्वपर्यायवर्ती चैतन्यका कार्य है। इस प्रकार बीज-वृक्षके समान यह कार्य-कारणकी परम्परा चैतन्यको भी सदा प्रवर्तमान रहती है । अतएव सिद्ध हुआ कि हमारा वर्तमान चैतन्य पूर्वपर्यायवर्ती चैतन्यपूर्वक उत्पन्न हुआ हैं । इस अनुमानसे चेतन आत्माका अस्तित्व और परलोकका अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि पूर्व भव आदि न माने जावें तो उस ही दिनका उत्पन्न हुआ अशिक्षित शिशु आत्माके पूर्वसंस्कारके विना माँके स्तन पर अपने मुखको कैसे लगा देता हैं? कहनेका भाव यह कि तत्कालका उत्पन्न शिशु पूर्वजन्मके संस्कारसे ही माँके स्तनको चूसने लगता है ॥१६॥ और जो तुमने कहा हैं कि पृथ्वी आदि भूतचतुष्टयसे चैतन्य आत्मा उत्पन्न होता है, सो भाई, यह बताओ कि अचेतन भूतोंसे यह चेतन आत्मा कैसे उत्पन्न हो जाता हैं? क्योंकि भिन्न जातिवाले कारणसे भिन्न जातिवाला कार्य उत्पन्न होता हुआ नहीं दिखाई देता है । अर्थात् कारणके अनुसार ही कार्य उत्पन्न होता हैं । यतः पृवी आदि भूत अचेतन है, अतः उनसे भिन्न जातीय चेतनकी उत्पत्ति कभी भी संभव नहीं हैं ।।१७।। फिर भी यदि तुम्हारा यही दुराग्रह हो कि पृथ्वी आदि भूतोंमेंसे एक-एक भूतसे चेतन उत्पन्न होता है कि सभीसे युगपत् एक चेतन उत्पन्न होता हैं? प्रथम विकल्प मानने पर जितने भूत हैं, उतने ही चेतनोंका उत्पन्न होना कैसे रोका जा सकता है, अर्थात् प्रत्येक भूतसे अपनी-अपनी जातिका ही चेतन उत्पन्न होगा। ऐसी दशामें भतचतुष्टयसे एक नहीं, किन्तु अनेक चेतन उत्पन्न होंगे, जो कि दिखाई नहीं देते है।।१८॥ दूसरे विकल्पके मानने पर हम पूछते है कि भिन्न-भिन्न स्वभाववाले उन भूतोंसे एक स्वभाववाला चेतन कैसे पैदा हो सकता हैं, यह बताओ ।।१९।।। यदि आप कहें कि अचेतन भी भूतोंसे चेतनका उत्पन्न होना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि भिन्न जातिवाले मोतियोंकी उत्पत्ति जलादिसे भी देखी जाती है। सो तुम्हारा यह कथन अयुक्त हैं, क्योंकि मोती और जलादिककी एक पौद्गलिक जाति ही है, अतः उनकी जातिकी भिन्नता कैसे संभव है ।।२० २१।। तथा अचेतन पीठी-गुड-जल आदिके संयोगसे अचेतन ही मदशक्ति उत्पन्न होती है,इसलिये तुम्हारा यह दृष्टान्त चेतनके विषयमें देना ठीक नहीं हैं ।।२२।। तत्वज्ञ पुरुषोंको शरीर और आत्माकी एकता भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि मरणके पश्चात् शरीरके तदवस्थ रहने पर भी जीवकी उपलब्धि नहीं होती है। इससे ज्ञात होता है कि शरीर और आत्मा ये दो भिन्न-भिन्न जातिके पदार्थ है, एक नहीं है ।।२३।। एक ज्ञानमात्र तत्त्वकेमाननेवाले ज्ञानाद्वैतवादी कहते है कि निरंश और क्षणिक ज्ञानके अतिरिक्त आत्मा नामकी कोई वस्तु नहीं है, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते हैं कि 'ज्ञानको छोडकर आत्मा नामकी कोई वस्तु नहीं है' यह वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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