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________________ श्रावकाचार-संग्रह 1 पृथिव्यम्भोऽग्निवातेभ्यो जायते यन्त्रवाहकः । विष्टोदकगुडादिभ्यो मदशक्तिरिव स्फुटम् ।। ६ जन्मपञ्चत्वयोरस्ति न पूर्वपरयोरयम् । सदा विचार्यमाणस्य सर्वथाऽनुपपत्तितः ॥ ७ परात्मवैरिणां नेतन्नास्तिकानां कथञ्चन । युज्यते वचनं तत्त्वविचारानुपपतितः ॥ ८ विद्यते सर्वथा जीवः स्वसंवेदनगोचरः । सर्वेषां प्राणिनां तत्र बाधकानुपपत्तितः ॥ ९ शक्यते न निराकर्तु केनाप्यात्मा कथञ्चन । स्वयंवेदनवेद्यत्वात् सुखदुःखमिव स्फुटम् ।। १० अहं दुःखी सुखी चाहमित्येषः प्रत्यय: स्फुट: । प्राणिनां जायतेऽध्यक्षो निर्बाधो नात्मना विना ॥११ स्वसंवेदनतः सिद्धे निजे वपुषि चेतने । शरीरे परकोटोऽपि स सिद्धयत्यनुमानतः ॥ १२ परस्य ज्ञायते देहे स्वकीय इब सर्वथा । चेतनो बुद्धिपूर्वस्य व्यापारस्योपलब्धितः ।। १३ जन्मपञ्चत्वयोरस्ति न पूर्वपरयोरयम् । नैषा गीर्युज्यते तत्र सिद्धत्वादनुमानतः ॥ १४ चैतन्यमादिमं नूनमन्यचैतन्यपूर्वकम् । चैतन्यत्वाद्यथा मध्यमन्त्यमन्यस्य कारणम् ।। १५ २९२ छोडकर परलोकके सुखमें बुद्धि नहीं करना चाहिये । क्योंकि बुधजन प्रत्यक्ष दृष्ट वस्तुको छोडकर अदृष्ट परोक्ष वस्तुके पानेकी बुद्धि नहीं करते है |५|| जैसे दालोंकी पीठी, जल, गुड आदिके संयोगसे मदशक्ति स्पष्टरूपसे प्रगट होती दिखती है, इसी प्रकार पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इस भूतचतुष्टयसे इस शरीररूप यंत्रका संचालन करनेवाला आत्मा नामक पदार्थ उत्पन्न होता हैं, वस्तुतः आत्मा नामका कोई पदार्थ नहीं है || ६ || इस प्रकार जन्मसे पूर्व में और मरणके पश्चात् जीब नामका कोई पदार्थ नहीं हैं, क्योंकि युक्तिसे विचार करनेपर उसका सर्वथा अभाव प्रतीत होता है ||७|| किन्तु पराये और अपने वैरी नास्तिक लोगों का यह कथन कदाचित् भी सत्य नहीं हैं, क्योंकि युक्तिसे विचार करने पर वह सत्य सिद्ध नहीं होता हैं ||८|| सभी प्राणियों के स्वानुभवगोचर अर्थात् अपने अनुभव में आनेवाला जीव सर्वथा विद्यमान है, क्योंकि स्वसवेदन में कोई बाधक प्रमाण नहीं पाया जाता हैं ||९|| आत्माका अस्तित्व किसीके भी द्वारा किसी भी प्रकार मे निराकरण करना शक्य नहीं है, क्योंकि वह सुख-दुःख के समान स्व-संवेदन प्रत्यय-स्वानुभव - प्रत्यक्ष से स्पष्ट जाना जाता हैं ॥ १०॥ ' मैं दुःखी हूँ, मैं सुखी हूँ' ऐसा स्वसंवेदन - प्रत्ययरूप स्पष्ट निर्बाध प्रत्यक्ष आत्मा विना प्राणियोंके नहीं हो सकता है ।। ११ । । इस प्रकार अपने शरीर में स्वसंवेदन - प्रत्यक्षसे चेतन आत्माके सिद्ध होने पर परके शरीरमें भी अनुमानसे उसकी सिद्धि होती है ॥२२॥ वह अनुमान प्रमाण इस प्रकार हैं- परके देहमें चेतन आत्मा है, क्योंकि उसके बुद्धिपूर्वक व्यापार पाया जाता हैं । जैसे कि अपने में बुद्धिपूर्वक व्यापार सर्वथा पाया जाता हैं ||१३|| और जो तुम नास्तिकोंने कहा हैं कि 'जन्मसे पूर्व और मरणके पश्चात् जीवनामक कोई पदार्थ नहीं हैं, सो यह कथन भी युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि अनुमानसे आत्माका अस्तित्व सिद्ध है ।।१४।। यथा - आद्य चैतन्य निश्चयसे अन्य चैतन्य-पूर्वक हैं, क्योंकि वह चैतन्यरूप है । जैसे कि मध्यका चैतन्य और अन्तका चैतन्य अन्यका कारण है ॥ १५ ॥ भावार्थ- द्रव्यकी पर्याय सदा बदलती रहतो हैं, फिर भी उसका सर्वथा अभाव नहीं होता, क्योंकि सत्का कभी अभाव और असत् का उत्पाद असंभव है । इस नियम के अनुसार 'हमारा मनुष्यपर्यायरूप चैतन्य इससे पूर्ववर्ती देवादिपर्यायवाले चैतन्य-पूर्वक उत्पन्न हुआ हैं जैसे कि बालपन के चैतन्यपूर्वक युवावस्थारूप मध्यवर्ती चैतन्य उत्पन्न होता हैं और मध्य चैतन्यपूर्वक वृद्धावस्थारूप अन्त्य चैतन्य उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अन्त्य चैतन्यपूर्वक आगामी भवका चैतन्य उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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