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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः लोकालोकविलोकिनीमकलिलां गीर्वाणवर्गाचताम्, दत्ते केवलसम्पदं शमवतामानीय या लीलया । सम्यग्दृष्टि र पास्तदोष निवहा यस्यास्ति सा निश्चला तेन प्रापि न कि सुखं बुधजनंरभ्यर्च्यमानं स्थिरम् ।। ८५ सम्यक्त्वोत्तमभूषणोऽमितगतिर्धते व्रतं यस्त्रिधा, भुक्त्वा भोगपरम्परामनुपमां गच्छत्यसौ निर्वृत्तिम् । सर्वापायनिषूदिनीमपमलां चिन्तामण सेवते, यः पुण्याभरणाचितः स लभते पूतां न कां सम्पदम् ॥ ८६ इत्यमितगतिकृतश्रावकाचारे तृतीयः परिच्छेदः ।। चतुर्थः परिच्छेदः केचिदन्ति नास्त्यात्मा परलोकगमोद्यतः । तस्याभावे विचारोऽयं तत्त्वानां घटते कुतः ॥ १ विद्यते परलोकोऽपि नाभावें परलोकिनः । अमावें परलोकस्य धर्माधर्मक्रिया वृथा ।। २ इहलोके सुखं हित्वा ये तपस्यन्ति दुधियः । हित्वा हस्तगतं ग्रासं ते लिह्यन्ति पदाङ्गुलीः ॥ ३ निहाय कलिलाशङ्कां सन्चेष्टं चेष्टतां जनः । चेतनस्य विनष्टस्य विद्यते न पुनर्भवः ॥ ४ नाभ्यलोकमतिः कार्या मुक्त्वा शर्मेहलौकिकम् । दृष्टं विहाय नादृष्टे कुर्यते धिषणां बुधाः ॥ ५ २९१ के बिना ही फलशालिनी समृद्ध कृषिको चाहते है ||८४|| जो लोक- अलोककी अवलोकन करने - वाली, निर्मल- समूह से पूजित ऐसी कैवल्यसम्पदा शमभावी साधुओंको लीलामात्र से लाकर देती है, ऐसी सर्वदोष-समुदायसे रहित यथार्थ सच्ची दृष्टि जिसके हृदयमें निश्चलरूपसे विद्यमान है, उस पुरुषने ज्ञानियोंसे प्रार्थनीय सुखको क्या चिरकालके लिए नहीं पा लिया है? पा ही लिया है । ८५॥ जो सम्यक्त्वरूप उत्तम आभूषणका धारक अमितगति पुरुष व्रतोंको मन वचन कायरूप त्रियोगसे धारण करता है, वह अनुपम भोंगों की परम्पराको भोग कर मोक्षको प्राप्त होता हैं । जो पुण्यरूप आभूषण से अर्चित मनुष्य सर्व अपायोंकी नाश करनेवाली मल-रहित चिन्तामणिको सेवन करता है. वह किस पवित्र सम्पदाको नहीं प्राप्त करता हैं ? अर्थात् गभी प्रकारकी सम्पदाओंको पाता ॥ ८६ ॥ इस प्रकार अमितगति-रचित श्रावकाचार में तीसरा परिच्छेद समाप्त हुअ' । Jain Education International कितने ही नास्तिकमति चार्वाक कहते है कि परलोकमें गमन करनेको उद्यत कोई आत्मा दिखाई नहीं देता है, इसलिये उसके अभाव में तत्त्वोंका यह पुर्वोक्त विचार कैसे सुघटित हो सकता हैं ||१|| परलोकमें जानेवाले आत्माके अभाव में परलोक भी सिद्ध नहीं होता हैं और इस प्रकार परलोकके अभाव में धर्म-अधर्मकी क्रिया व्यर्थ है । २|| जो दुर्बुद्धि पुरुष इस लोकके सुख को छोडकर तपश्चरण करते हैं, वे मानों हस्त-गत ग्रासको छोड़कर पैरकी अँगुलीको चाटते हैं ॥ ३ ॥ इसलिये पापकी शंकाको छोडकर मनुष्यको यथेष्ट - मनमाना - आचरण करना चाहिये। क्योंकि चेतनके विनष्ट होनेपर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है ||४|| अतएव पुरुषोंको इस लोकका सुख For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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