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________________ २९४ श्रावकाचार-संग्रह ज्ञानं विहाय नात्माऽस्ति नेदं वचनमञ्चितम् । ज्ञानस्य क्षणिकत्वेन स्मरणानुपपत्तितः ॥ २४ मात्मा सर्वगतो वाच्यस्तत्स्वरूपविचारिभिः । शरीरव्यतिरेकेण येनासौ दृश्यते न हि ।। २५ शरीरतो बहिस्तस्य विज्ञान विद्यते न था। विद्यते चेत्कथं तत्र कृत्याकृत्यं न बुद्धचते ।। २६ यदि नास्ति कुतस्तस्य तत्र सत्ताऽवगम्यते । लक्षणेन विना लक्ष्यं न क्वापि व्यवतिष्ठते ।। २७ सर्वेषामेक एवात्मा युज्यते नेति जल्पितुम् । जन्ममृत्यसुखादीनां भिन्नानामुपलम्भतः ॥ २८ न वक्तव्योऽणमात्रोऽयं सर्वैर्येनानुभूयते । अभीष्टकामिनीस्पर्शे सर्वाङ्गीणः सुखोदयः ॥ २९ समीरणस्वभावोऽयं सुन्दरा नेति भारती । सुखज्ञानादयो भावाः सन्ति नाचेतने यतः ॥ ३० न ज्ञानविकलो वाच्यः सर्वथाऽऽत्मा मनीषिभिः । क्रियाणां ज्ञानजन्यानां तत्राभावप्रसङ्गतः ।। ३१ प्रधानज्ञानतो ज्ञानी न वाच्यो ज्ञानशालिभिः । अन्यज्ञानेनन ह्यन्यो ज्ञानी क्यापि विलोक्यते ॥३२ सत्य नहीं हैं, क्योंकि ज्ञानके क्षणिक होनेसे पूर्वज्ञात स्मरण नहीं होना चाहिये । किन्तु हम आप सभी लोगोंको पूर्वज्ञात पदार्थका स्मरण पाया जाता हैं, अतः आत्मा नामका कोई नित्य पदार्थ अवश्य है, यह सिद्ध होता है ॥२४॥ आत्माको सर्वव्यापक माननेवाले ब्रह्माद्वैतवादियोंको लक्ष्य करके आचार्य कहते है कि आत्म-स्वरूपका विचार करनेवालोंको 'आत्मा सर्वगत या सर्वव्यापक है, ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि शरीरके अतिरिक्त वह अन्तरालमें कहीं नहीं दिखाई देता है ।।२५।। इतने पर भी यदि आप आत्माको सर्वव्यापक मानें तो हम पूछते है कि शरीरसे बाहिर फिर कृत्य और अकृत्यका ज्ञान क्यों नहीं होता है? यदि कहा जाय कि शरीरके बाहिर आत्माका ज्ञान नहीं होता हैं, तो फिर शरीके बाहिर उस आत्माकी सत्ता कैसे जानी जा सकती है, यह बतलाइये, क्योंकि लक्षणके विना लक्ष्य कहीं पर भी नहीं ठहर सकता है ।।२६-२७॥ भावार्थज्ञान लक्षण है और आत्मा लक्ष्य हैं । जहाँ पर लक्षण नहीं पाया जाता हैं, वहाँ पर लक्ष्य कैसे पाया जा सकता है । अतएव आत्माको सवव्यापक मानना मिथ्या हैं। यदि आप कहें कि 'सभी शरीरोंमें एक ही आत्मा रहता है' सो यह कहना भी योग्य नहीं हैं, क्योंकि सभी शरी रोमें भिन्न-भिन्न ही जन्म, मरण और सुख-दुःखादिकी उपलब्धि होती हैं, इसलिये सभी शरीरोंम एक आत्माका कथन मिथ्या है ।।२८।। कुछ लोग आत्माको अणुमात्र मानते हैं, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते है कि आत्माका अणुमात्र भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि अभीष्ट स्त्रीके स्पर्श के समय सारे शरीरसे उत्पन्न हआ सुखका आल्हाद सभी लोग अनभव करते हैं ।।२९। यदि कहा जाय कि सर्वाङमें सुखका अनुभव तो पवनके तीव्र वेगके संचारसे होता हैं, सो यह कहना भी सुन्दर नहीं है, क्योंकि सुख, ज्ञान आदिक चेतनभाव अचेतन पवनमें संभव नहीं है । अतएव आत्माको अणु-प्रमाण न मानकर शरीर-प्रमाण ही मानना चाहिये ।।३०।। कुछ लोग आत्माको ज्ञानसे रहित मानते है, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते हैं कि बुद्धिमान् लोगोंको आत्मा ज्ञानसे विकल कभी भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि यदि आत्माको ज्ञानसे शून्य माना जाय, तो ज्ञान-जन्य क्रियाओंका आत्मामें अभाव प्राप्त होता है। किन्तु आत्मामें तो ज्ञानजनित क्रियाएँ देखी जाती है अतः उसे ज्ञान-युक्त ही मानना चाहिये ॥३१।। यदि कहा जाय कि आत्मामें जो ज्ञानके सद्भावकी प्रतीति होती है, वह प्रधान (प्रकृति) जनित ज्ञानके संसर्गसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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