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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
न शुद्धः सर्वथा जीवो बन्धाभावप्रसङ्गतः । न हि शुद्धस्य मुक्तस्य दृश्यते कर्मबन्धनम् ॥ ३३ प्रधानेन कृते धर्मे मोक्षभागी न चेतनः । परेण विहिते भागे तृप्तिभागी कुतः परः ।। ३४ प्रधानं यदि कर्माणि विधत्ते मुञ्चते यदि । किमात्माऽनर्थकः सांख्यैः कल्प्यते मम कथ्यताम् ॥ ३५ न ज्ञानमात्रतो मोक्षस्तस्य जातूपपद्यते । भैषज्यज्ञानमात्रेण न व्याधिः क्वाऽपि नश्यति ।। ३६ अचेतनस्य न ज्ञानं प्रधानस्य प्रवर्तते । स्तम्भकुम्भादयो दृष्टा न क्वापि ज्ञानयोगिनः ।। ३७ ऊह्यं स्वयमकर्तारं भोक्तारं चेतनं पुनः । भाषमाणस्य सांख्यस्य न ज्ञानं विद्यते स्फुटम् ॥ ३८ सकलैर्न गुणैर्मुक्तः सर्वथाऽऽत्मोपपद्यते । न जातु दृश्यते वस्तु शशशृङ्गमिवागुणम् ।। ६९ न ज्ञानज्ञानिनोर्भेदः सर्वथा घटते स्फुटम् । सम्बन्धाभावतो नित्यं मेरुकैलासयोरिव ।। ४० सममायेन सम्बन्धः क्रियमाणो न युज्यते । नित्यस्य व्यापिनस्तस्व सर्वदाऽप्यविशेषतः ॥ ४१
होती है । इस पर आचार्य कहते है कि ज्ञानशालियोंको ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि अन्यके ज्ञानसे कोई अन्य पुरुष ज्ञानी हुआ कहीं भी नहीं देखा जाता हैं ||३२|| जो लोग संसारी जीवको भी सर्वथा शुद्ध मानते है, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते हैं कि संसारी जीव सर्वथा शुद्ध नहीं हैं, क्योंकि उसके शुद्ध मानने पर कर्म-बन्धके अभावका प्रसंग आता है । देखो शुद्ध मुक्त जीवके कर्म - बन्धन नहीं पाया जाता है ||३३|| यदि प्रधान (प्रकृति) के द्वारा धर्म किया जाता हैं, यह माना जाय, तो फिर चेतन पुरुष मोक्षका भागी नहीं हो सकता, क्योंकि अन्यके द्वारा आहारादिके भोगने पर अन्य पुरुष तृप्तिका अनुभव कैसे कर सकता हैं ।। ३४ ।। यदि प्रधान पुण्य-पापरूप कर्मोंको करता हैं और यदि वही छोड़ता हैं, तो फिर मुझे बतलाइये कि सांख्योंने इस अनर्थक आत्माकी कल्पना क्यों की है ||३५|| सांख्यमती कहते हैं कि द्वैतरूप भ्रमसे कर्मबन्ध होता है और अद्वैतरूपके ज्ञानमात्रसे कर्म-बन्ध नष्ट हो जाता है, इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि केवल ज्ञानमात्रसे जीवका मोक्ष कभी भी नहीं होता है। क्योंकि कहीं पर भी औषधिके ज्ञानमात्रसे व्याधि नष्ट नहीं होती है || ३६ ||
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दूसरी बात यह है कि अचेतन प्रधानके ज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती हैं। क्योंकि कहीं पर भी अचेतन स्तम्भ, कुम्भ आदि पदार्थ ज्ञानोपयोगवाले नहीं देखे जाते है ||३७|| स्वयं आत्माको अकर्ता कहकर और फिर चेतनको भोक्ता कहनेवाले सांख्य के ज्ञान नहीं है, यह स्पष्ट ज्ञांत होता है ||३८|| वैशेषिक- नैयायिक मतावलम्बी मुक्त जीवको बुद्धि-सुख आदि समस्त गुणोंसे रहित मानते हैं, उनको लक्ष्य में रखकर आचार्य कहते हैं कि सर्वगुणोंसे सर्वथा रहित मुक्त आत्मा संभव नहीं है, क्योंकि शश-शृंगके समान सर्वथा गुण-रहित कोई भी वस्तु कदाचित् भी नहीं दिखाई देती है ||३९|| भावार्थ- गुणोंके समुदायरूप द्रव्यको ही गुणी कहते हैं । यदि मुक्त अवस्था में गुणोंका सर्वथा अभाव माना जायगा, तो गुणीका भी अभाव मानना पडेगा । अतएव गुण-रहित मुक्त जीवको कहना मिथ्या हैं । जो लोग ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथा भेद मानते हैं, उनका निषेध करते हुए आचार्य कहते है कि ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथा भेद घटित नहीं होता जैसे कि मेरु और कैलास पर्वत में सम्बन्धका अभाव होनेसे नित्य ही सर्वथा भेद घटित होता है ॥ ४० भावार्थ - यदि ज्ञानसे ज्ञानीमें सर्वथा भेद माना जायगा, तो उनका परस्परमें सम्बन्ध नहीं बन सकेगा । यदि कहा जाय कि समवाय के द्वारा ज्ञान और ज्ञानी में सम्बन्ध बन जायगा, सो यह कहना भी युक्ति संगत नहीं हैं, क्योंकि समवायके नित्य और व्यापक होनेसे उसका सर्वत्र सभी जड़ और चेतन पदार्थोंसे विना किसी विशेषताके सम्बन्ध होना चाहिये ||४१॥ भावार्थ - यदि समवायसे ज्ञान और आत्मा
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