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________________ श्रावकाचार-संग्रह नित्यताऽनित्यता तस्य सर्वथा न प्रशस्यते । अभावादर्थनिष्पत्तेः क्रमतोऽक्रमितोऽपि वा ।। ४२ न नित्यं कुरुते कार्य विकारानुपपत्तितः । नानित्यं सर्वथाऽनिष्टमारोग्यं मृतवैद्यवत् ॥ ४३ नामूर्तिः सर्वथा युक्तः कर्मबन्धाप्रसङ्गतः । नमसो न ह्यमूर्तस्य कर्मलेपो विलोक्यते ॥ ४४ स यतो बन्धतोऽभिन्नो लक्षणतः पुनः । अमूर्तताऽऽत्मनस्तस्य सर्वथा नोपपद्यते ॥। ४५ निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः स्थित्युत्पसिव्ययात्मकः । कर्त्ता भोक्ता गुणो सूक्ष्मो ज्ञाता द्रष्टा तनुप्रमः स्थिते प्रमाणतो जीवें सर्वेऽप्यर्थाः स्थिता यतः । क्रियमाणा ततो युक्ता सप्ततत्त्वविचारणा ।। ४७ परे वदन्ति सर्वज्ञो वीतरागो न विद्यते । किञ्चिज्ज्ञत्वादशेषाणां सर्वथा रागतत्त्वतः ॥ ४८ तवयुक्तं वचस्तेषां ज्ञानं सर्वार्थगोचरम् । न विना शक्यते कर्तु सर्वपुंज्ञानवारणम् ।। ४९ समस्ताः पुरुषा येन कालत्रितयवर्तिनः । निश्चिताः स नरः शक्तः सर्वज्ञस्य निषेधने ॥। ५० का सम्बन्ध होना माना जाय, तो घटपटादि अचेतन पदार्थोंमें ज्ञानका सम्बन्ध क्यो न माना जाय? क्योकि उसे नित्य और व्यापक माना गया है । समवाय के सर्वथा नित्यता और अनित्यता भी नहीं मानी जा सकती है, क्योंकि दोनों ही अवस्थाओंमें क्रमसे अथवा युगपत् अर्थ क्रियाका अभाव रहेगा ||४२ || आचार्य इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते है कि नित्य पदार्थ तो क्रमसे या एक साथ कार्य नहीं कर सकता है, क्योंकि नित्म पदार्थ में विकार होना संभव नहीं है, यदि नित्यमें भी विकार माना जायगा, तो उसे अनित्य मानना पडेगा । इसी प्रकार सर्वथा अनित्य पदार्थ भी क्रमसे अथवा युगपत् कार्य नहीं कर सकता है । जैसे कि मरा हुआ वैद्य रोगी पुरुषको नीरोग नहीं कर सकता हैं ।। ४३ ।। जो लोग संसारी आत्माको सर्वथा अमूर्त मानते हैं उनका निषेध करते हुए आचार्य कहते हैं कि आत्माको सर्वथा अमूर्त कहना युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि संसारी आत्मा के कर्म-बन्धका प्रसंग देखा जाता हैं । किन्तु सर्वथा अमूर्त आकाशके कर्म लेप नहीं देखा जाता है। इससे ज्ञात होता है कि संसारी आत्मा सर्वथा अमूर्त्त नहीं है॥४४॥ | यतः यह आत्मा कर्म-बन्धसे अभिन्न हैं और जीव तथा कर्मके लक्षण भिन्न-भिन्न होनेसे लक्षणकी अपेक्षा दनों भिन्न हैं, अतः जीवके अमूर्तता सर्वथा नहीं बन सकती है ।। ४५ ।। भावार्थ - कर्मो के साथ सम्बन्ध होनेसे जीवको कथंचित् मूर्त्त मानना चाहिये । उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि जीवका निर्बाध अस्तित्व हैं, वह स्थिति उत्पत्ति व्ययात्मक है, कर्मोका कर्त्ता और भोक्ता हैं, गुणी हैं, सूक्ष्म ( अमूर्त) हैं, ज्ञाता द्रष्टा और शरीर प्रमाण है ॥ ४६॥ इस प्रकार प्रमाणसे जीवतत्त्वकी सिद्धि हो जाने पर अजीव, आस्रव आदि अन्य तत्त्व भी स्वतः सिद्ध हो जाते है । अतएव प्रकृतमें किया गया सप्ततत्त्वका विचार सर्वथा युक्ति-पंगत हैं ॥ ४७ ॥ कितने ही लोग कहते हैं कि संसारमें कोई भी सर्वज्ञ और वीतराग नहीं है, क्योंकि सभी जीवके सर्वदा अल्पज्ञता और रागपना दिखाई देता है ||४८ || आचार्य इसका निषेध करते हुए कहते है कि सर्वज्ञ और वीतरागका निषेध कारक उक्त वचन अयुक्त है, क्योंकि सर्व पदार्थोको विषय करनेवाले ज्ञानके विना सभी पुरुषोंमें सर्व जाननेवाले ज्ञानका निवारण करना शक्य नहीं हैं । जिस व्यक्तिने विकालवर्ती समस्त पुरुषोंको भली-भाँति जान लिया है कि इनमें कोई सर्वज्ञ नहीं हैं' वही पुरुष सर्वज्ञका निषेध करने में समर्थ हो सकता है, अन्य नहीं ॥ ४९ ॥ यदि कहा जाय कि अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञका निषेध करना शक्य हैं, मो यह कथन भी युक्ति-संगत नहीं हैं, क्योंकि अतीन्द्रिय सर्वज्ञके विषय में अभाव प्रमाणकी प्रवृत्तिका अभाव २९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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