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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २९७ न चाभावप्रमाणेन शक्यते स निषेधितुम् । सर्वज्ञेऽतीन्द्रिये तस्य प्रवृत्तिविगमत्वतः ॥५१ प्रमाणामावतस्तस्य न च युक्तं निषेधनम् । अनुमानप्रमाणं हि साधनं तस्य विद्यते ।। ५२ वीतरागोऽस्ति सर्वज्ञः प्रमाणाबाधितत्वतः । सर्वदा विदितः सद्भिः सुखादिकमिव ध्रुवम् ॥ ५३ क्षीयते सर्वथा रागः क्वापि कारणहानितः । ज्वलनो हीयते किं न काष्ठानां च वियोगतः ।। ५४ प्रकर्षस्य प्रतिष्ठानं ज्ञानं क्वापि प्रपद्यते । परिमाणमिवाकाशे तारतम्योपलब्धितः ।। ५५ प्रकर्षावस्थितिर्यत्र विश्व दृश्वा स गीयते । प्रणेता विश्वतत्त्वानां प्रहताशेषकल्मषः ।। ५६ बोध्यमप्रतिबन्धस्य बुध्यमानस्य न श्रमः । बोधस्य दहतोऽसह्यं पावकस्येव विद्यते ॥ ५७ अनुपदेशसंवादि लामालाभादिवेचनम् । समस्तज्ञमतेऽन्यस्य निलिग शोभते कथम् ॥ ५८ अपौरुषेयतो युक्तमेतदागमतो न च युक्त्या विचार्यमाणस्य सर्वथा तस्य हानितः ।। ५९ है ॥५०॥ भावार्थ-निषेध-योग्य वस्तु और उसका आधारभूत पदार्थ इन दोनोंका जिस पुरुषको ज्ञान हो, वही पुरुष अभाव प्रमाणके द्वारा निषेध्य वस्तुका निषेध कर सकता है। जैसे कोई पुरुष पहले भूमिके आधार पर आधेय घटको देख रहा था। पीछे घटके नहीं देखने पर ही वह कह सकता हैं कि यहाँ पर घट नहीं है। किन्तु जैसे घट और भूतल इन्द्रियगोचर है, इस प्रकारसे पुरुषके भीतर पाया जानेवाला सर्व-ज्ञायक ज्ञान इन्द्रिय-गोचर नहीं है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय हैं, अतः अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञका निषेध नहीं किया जा सकता हैं। यदि कहा जाय कि सर्वज्ञके सद्भावको सिद्ध करनेवाले प्रमाण का अभाव होनेसे सर्वज्ञका निषेध करते हैं, सो यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञका साधक अनुमानप्रमाण विद्यमान है ॥५१॥ वह इस प्रकार हैं-सन्तोंके द्वारा सर्वदा विदित सर्वज्ञ है, क्योंकि उसके विषयमें सुनिश्चित बाधक प्रमाण का अभाव है। जैसे कि सुखादिक स्वसंवेदन गोचर होनेसे निर्बाध सिद्ध है। इस अनुमान प्रमाणसे सर्वज्ञ की सिद्धि होती हैं ।।५२।। अब वीतरागकी सिद्धि करते है-किसी आत्मामें राग सर्वथा क्षयको प्राप्त होता हैं, क्योंकि रागके कारणोंकी अतिशय युक्त हानि पायी जाती है। जैसे कि काष्ठादि रूप इन्धनके अभावसे प्रज्वलित भी अग्नि सर्वथा क्षयको प्राप्त हो जाती है ।।५३॥ आगे सर्वज्ञताकी और भी सिद्धि करते हैं-तारतम्यरूपसे प्रकर्षको प्राप्त होनेवाला ज्ञान किसी विशिष्ट आत्मामें चरम प्रकर्षको भी प्राप्त होता है। जैसे कि आकाशमें परिमाणकी वृद्धिके तारतम्य पाये जानेसे उसका चरम प्रकर्ष भी पाया जाता हैं ।।५५।। जहाँपर ज्ञानकी परम प्रकर्षरूप अवस्था पायी जाती हैं, वह पुरुष विश्वदृश्वा सर्वज्ञ कहा जाता हैं । वही विश्वतत्त्वोंका प्रणेता है और समस्त राग-द्वेषादि से रहित वीतराग भी वही पुरुष जानना चाहिए ।५६। यदि कहा जाय कि जानने योग्य पदार्थ तो अनन्त है, उन सबको जानने में सर्वज्ञको भारी परिश्रम उठाना पडता होगा? सो इसका उत्तर यह है कि आवरणके प्रतिबन्धसे रहित निरावरण ज्ञानवाले सर्वज्ञको जानने योग्य ज्ञेय पदार्थों के जानने में कोई परिश्रम नहीं होता है । जैसे कि दहन योग्य इन्धनको जलाते हुए पावकको कोई परिश्रम नहीं होता है ।।५७। दूसरी बात यह है कि देश-कालसे दूरवर्ती परोक्ष पदार्थोका और लाभ-अलाभ का ज्ञान सर्वज्ञके विना उपदेशके अन्य अल्पज्ञ पुरुष में कैसे शोभा को प्राप्त हो सकता है? अर्थात सर्वज्ञके माने विना न तो देशान्तरित, कालान्तरित सूक्ष्म पदार्थोंका ज्ञान ही हो सकता है और न आगामी काल में होनेवाले हानि-लाभका ही ज्ञान हो सकता है, अतः सर्वज्ञको मानना ही चाहिए ।।५८।। मीमांसक लोक अपौरुषेय वेदरूप आगमसे सर्व पदार्थों का ज्ञान होना मानते है। आचार्य उनका निषेध करते हुए कहते है कि अपौरुषेय आगमसे सर्व पदार्थोंका ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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