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________________ २९० श्रावकाचार-संग्रह आगमोऽकृत्रिमः कश्चिन्न कदाचन विद्यते । तस्य कृत्रिमतस्तस्माद्विशेषानुपलम्भतः ।। ६० पश्यन्तो जायमानं यत्ताल्वादिक्रमयोगत: । वदन्त्यकृत्रिमं वेदमनायं किमतः परम् ॥ ६१ त्रिलोकव्यापिनो वर्णा व्यज्यन्ते व्यञ्जकैरिति । न सत्यभाषिणी भाषा सर्वव्यक्तिप्रसङ्गतः ।। ६२ एकत्रभाविनः केचिद्व्यज्यन्ते नापरे कयम् । न दीपव्यज्यमानानां घटादीनामयं क्रम: ।। ६३ व्यञ्जकव्यतिरेकेण निश्चीयन्ते घटादयः । स्पर्शप्रभृतिभिर्जातुन वर्णाश्च कथञ्चन ।। ६४ व्यज्यन्ते व्यञ्जर्वर्णा न व्यज्यन्ते पुनर्बुवम् । इत्यत्र विद्यते काचिन्न प्रमा वेदवादिनाम् ॥ ६५ विना सर्वज्ञदेवेन वेदार्थ: केन कथ्यते । स्वयमेवेति नो वाच्यं संवादित्वप्रसङ्गतः ।। ६६ न पारम्पर्यतो ज्ञानमसर्वहः प्रवर्तते । समस्तानामिवान्धानां मलज्ञानं विना कृतम ६७ कृत्रिमेष्वप्यनेकेषु न कर्ता स्मर्यते यतः । कर्बस्मरणतो वेदो युक्तो तात्कृत्रिमस्ततः ॥ ६८ होता हैं, यह कथन युक्त नहीं है, क्योंकि युक्ति के द्वारा विचार करने पर उस अपौरुषेय आगम की सर्वथा हानि सिद्ध होती है। ५९।। आचार्य उस अपौरुषेय आगमके विषयमें मीमांसकोंसे पूछते है कि वह आगम अकृत्रिम है, अथवा कृत्रिम हैं? अकृत्रिम आगम तो कोई कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि उस अकृत्रिम आगमकी कृत्रिम आगमसे कोई विशेषता नहीं पाई जाती है ॥६॥ देखो-वेदके जो शब्द तालु-ओष्ठ आदि स्थानोंके क्रमिक संयोगसे उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होते हैं, उन शब्दोंको भी यदि मीमांसक अकृत्रिम कहते हैं, तो इससे अधिक और क्या आश्चर्य हो सकता हैं? यदि कहा जाय कि वर्ण (अक्षर) तो त्रिलोक-व्यापी और नित्य हैं, वे व्यंजक वायुके द्वारा व्यक्त होते है, उत्पन्न नहीं होते है । सो ऐसी भाषा बोलना भी समीचीन नहीं हैं, क्योंकि अभिव्यंजक वायुके द्वारा वर्णोंको अभिव्यक्त माननेपर तो सर्व ही वर्गों की अभिव्यक्तिका प्रसंग प्राप्त होता है ।।६१-६२।। यह कैसे संभव है कि एक स्थान पर बर्तमान सर्व शब्दोंमेंसे अभिव्यंजक वायुके द्वारा कुछ अक्षर तो अभिव्यक्त हों और कुछ अभिव्यक्त न हों? देखो-दीपकसे अभिव्यक्त होनेवाले घट पटादिकमें यह क्रम नहीं पाया जाता है। अर्थात् जैसे एक स्थानवर्ती घट-पटादिक दीपकके द्वारा एक साथ सर्व ही प्रकाशित होते है। ऐसा नहीं होता कि कुछ प्रकाशित हों और कुछ प्रकाशित नहीं हो ॥६३॥ दूसरी बात यह हैं कि जैसे व्यञ्जक दीपकादिके बिना भी घट-पटादिक पदार्थ स्पर्श आदिके द्वारा निश्चय किये जाते है, इस प्रकार वर्ण कदाचित् भी अन्य प्रकारसे निश्चय नहीं किये जाते हैं ॥६४।। इतने पर भी यदि वेद-वादी कहें कि व्यञ्जक वायुओंके द्वारा वर्ण व्यक्त किय जाते है, किन्तु नियमसे उत्पन्न नहीं किये जाते है, सो उनके इस कथनकी पुष्टिमें कोई प्रमाण नहीं है।॥६५।। इसके अतिरिक्त यह भी बतलाइए कि सर्वज्ञ देवके विना वेदका अर्थ किसके द्वारा कहा जाता है? यदि कहा जाय कि वेद अपने अर्थको स्वयं ही कहता है, सो ऐसा नहीं कह सकते, क्यों कि यदि वेद अपना अर्थ स्वयं ही कहता होता, तो फिर उसके अर्थके विषयमें कोई विसंवाद नहीं होना चाहिए था। किन्तु वेद याक्योंके अर्थमें विसंवाद पाया जाता है, अतएव यह कहना कि "वेद अपना अर्थ स्वयं कहता है" सर्वथा मिथ्या है ।। ६६ । यदि कहा जाय कि वेदका ज्ञान परम्परासे सर्व अज्ञानी जनोंमें प्रवर्तता चला आ रहा है, सो यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि समस्त अन्य पुरुषोंका ज्ञान मूलभूत ज्ञानके विना कार्यकारी नहीं होता हैं ॥६७।। पूनः मीमांसक कहता हैं कि वेदके कर्ताका किसीको स्मरण नहीं है, अतः वह अकृत्रिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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