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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २९९ हिंसादिवादकत्वेन न वेदो धर्मकांक्षिभिः । ठकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधैः ।। ६९ वीतरागश्च सर्वज्ञो जिन एवाशिष्यते । अपरेषामशेषाणां रागद्वेषादिदृष्टितः ॥७० न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । रागद्वेषमवक्रोधलोभमोहादियोगतः ।। ७१ रागवन्तो न सर्वज्ञा यथा प्रकृतमानवाः । रागवन्तश्च ते सर्वे न सर्वज्ञास्ततः स्फुटम् ॥ ७२ आश्लिष्टास्तेऽखिलैर्दोषैः कामकोपभयादिभिः । आयुधप्रमवाभूषकमण्डल्वादियोगतः ॥ ७३ प्रमदा भाषते काम द्वषमायुधसङ्ग्रहः । अक्षसूत्रादिकं मोहं शौचाभावं कमण्डलुः ।। ७४ परमः पुरुषो नित्यः सर्वदोषैरपाकृतः । तस्यैतेऽवयवा: सर्वे रागद्वेषादिभागिनः ।। ७५ नषाऽपि रोचते भाषा विचारोद्यतचेतसाम् । रागित्वेऽवयवानां हि विरागोऽवयवी कुतः ।। ७६ बुद्धिमद्धेतुकं विश्वं कार्यत्वात्कल शादिवत् । बुद्धिमास्तस्य यः कर्ता कथ्यते स महेश्वरः ॥ ७७ हैं, सो उसका यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक कृत्रिम भी कार्यों का कर्ता लोगोंको स्मत नहीं है, इसलिए क्या वे कार्य अकृत्रिम मान लिये जायेंगे? कभी नहीं । इसलिए स्मरण न होनेसे वेदको अकृत्रिम कहना योग्य नहीं है ।।६८। इसके अतिरिक्त वेद हिंसा आदि पापकार्योका भी प्रतिपादन करता हैं, इसलिए धर्मकी आकांक्षावाले बुधजन ठगोंके उपदेशके समान वेदको निश्चयसे प्रामागिक नहीं मानते हैं ।।६९।। ___ अतएव सत्यार्थ एवं निरवद्य अर्थका प्रकाशक एकमात्र वीतराग रूपसे जिनदेव ही अवशिष्ट रहता है,अतः उसे ही सच्चा देव मानना चाहिए और उसके ही वचन प्रामाणिक हैं । इस वीतराग सर्वज्ञ जिनदेवके अतिरिक्त शेष समस्त पुरुषोंके राग-द्वेषादिके देखे जानेसे उन्हें सत्यार्थ वक्ता या शास्ता नहीं माना जा सकता है ।।७०।। संसारमें लौकिक जनोंके द्वारा देव माने जानेवाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर न वीतराग है और न सर्वज्ञ ही हैं, क्योंकि उनमें राग द्वेष मद क्रोध लोभ मोह आदि दोषोंका संयोग पाता हैं ।।७१।। रागवाले पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं, जैसे कि सामान्य संसारी मनुष्य । रागवाले वे ब्रह्मादिक सभी देव है, अतः स्पष्ट रूपसे वे सर्वज्ञ नहीं हैं ।।७२।। वे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर, काम, क्रोध भय आदि समस्त दोषोंसे संयुक्त हैं, क्योंकि उनके आयुध, स्त्री, आभूषण और कमण्डलु आदिका संयोग पाया जाता हैं ।।७३।। प्रमदा स्त्रीका सद्भाव उनके काम-विकारको कहता है, आयुधोंका संग्रह उनके द्वेषभाव को प्रकट करता है, माला, यज्ञोपवीतादिक उनके महके द्योतक हैं और कमंडल उनके शौच का अभाव बतलाते है ।।७४॥ प्रकारसे यह सिद्ध हुआ कि जिनके राग-द्वेषादिके कारणभूत स्त्री-शस्त्रादिक का परिग्रह पाया जाता हैं, वे सच्चे देव कदापि नहीं हो सकते है । पुरुषाद्वैतवादी कहते है कि सर्वदोषोंसे रहित एक परम पुरुष ही नित्य है, अत उसे ही सत्यार्थ मानना चाहिए। इस मंसार में जितने भी रागद्वषादि के धारक पुरुष दिखाई देते है, वे सर्व उस एक परम पुरुष या परमब्रह्मके अवयव (अंश) है ।।७५।। उनका ऐसा कथन भी विचार-चतुर चित्तवाले पुरुषोंको नहीं रुचता हैं. कारण कि अवयवोंके सरागी होनेपर अवयवी नीरागी कैसे हो सकता है? भावार्थजब परम पुरुषके अवयव भूत संसारी प्राणी सरागी दिखते है, तो उनका आधारभूत अवयवी परम ब्रह्म वीतरागी कैसे हो सकता है? अर्थात् कभी नहीं हो सकता ॥७६।। जो वैशेषिक आदि अन्तमतावलम्बी लोग ईश्वरको जगत् का कर्ता मानते है, उनका निषेध करने के लिए आचार्य पहले उनका पक्ष उपस्थित करते है यह समस्त विश्व किसी बुद्धिमान् पुरुष के निमित्तसे निर्मित है क्योंकि वह कार्य हैं। जो-जो Jain Education International For Private & Personal Use Only Torrivas www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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