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________________ ३०० श्रावकाचार-संग्रह न विना शम्भुना नूनं देहब्रुमनगादयः । कुलालेनेव जायन्ते विचित्रा कलशादयः ।। ७८ ततोऽस्ति जगतः कर्ता विश्वदृश्वा महेश्वरः । वचन विद्यते नेदं चिन्त्यमानं विचक्षणः ।। ७९ कार्यत्वादित्यवं हेतुस्तस्या साधयते यथा । बुद्धिमत्त्वं तथा तस्य देहवत्त्वमपि ध्रुवम् ।। ८० नाशरीरी मया दृष्टः कुम्भकार: क्वचिद्यतः । फूलालस्तस्य दृष्टान्तस्ततो ब्रूते सदेहताम् ।। ८१ सदेहस्य च कर्तृत्वे सोऽस्मदाविसमो मतः । दृश्यतां प्रतिपद्येत कुम्भकारादिवत्ततः ।। ८२ भुवनं क्रियते तेन विनोपकरणैः कथम् । कृत्वा निवेश्यते कुत्र निरालम्बे विहायसि ।। ८३ विचेतनानि भूतानि सिसृक्षावशतः कथम् । विनिर्माणाय विश्वस्य वर्तन्ते तस्य कथ्यताम ॥ ८४ बुद्धोऽपि न समस्तज्ञः कथ्यते तथ्यवादिभिः । प्रमाणादिविरुद्धस्य शून्यत्वानिवेदनात् ।। ८५ प्रमाणेनाप्रमाणेन सर्वशून्यत्वसाधने । विकल्पद्वयमायाति कोकयुग्ममिवाम्भसि ॥ ८६ साधनेऽस्य प्रमाणेन सर्वशून्यव्यतिक्रमः । अङ्गीकृते प्रमाणस्य तनिषेधायिनः ।। ८७ प्रमाणव्यतिरेकेण सर्वशून्यत्वसाधने । सर्वस्य चिन्तितं सिद्धयेत्तत्वं केन निषिध्यते ॥ ८८ कार्य होते हैं, वे वे किसी न किसी बुद्धिमान्के निमित्तसे निर्मित होते है, जैसे कलश आदि पदार्थ । जो कोई भी बुद्धिमान् इस जगत्का कर्ता हैं, वही महेश्वर कहा जाता हैं । विना महेश्वरके शरीर, वृक्ष और पर्वतादिक पदार्थ नहीं उत्पन्न हो सकते है, जैसे कि कुम्भकारके विना कलश आदि अनेक विचित्र पदार्थ नहीं उत्पन्न हो सकते है । अतएव इस जगत्का कर्ता कोई विश्वदर्शी महेश्वर हैं। आचार्य उनके इस पूर्व पक्षका निषेध करते हुए कहते है कि यह उपर्युक्त वचन बुद्धिमान् जनोंके द्वारा विचार करनेपर युक्तिसंगत नहीं ठहरता हैं ।।७७-७९ । देखो-कार्यत्व यह हेतु जिस प्रकारसे उस महेश्वरके बुद्धिमान्पनाको सिद्ध करता है, उसी प्रकारसे उसके निश्चयसे शरीरवानपनाको भी सिद्ध करता है ।।८०। क्योंकि कहीं पर भी मैंने कुम्भकारको शरीर-रहित नहीं देखा है, इसलिए आपके द्वारा कुम्भकारका जो दृष्टान्त दिया गया हैं वह ईश्वरके सशरीरपनाको ही कहता है ।।८शा और शरीर-सहित ईश्वरको जगत्का का मानने पर तो वह हम आपके समान दृश्यपनेको प्राप्त हो जाता हैं, जैसे कि सशरीरी कुम्भकार सर्व जनोंको प्रत्यक्ष दिखाई देता है ॥८२।। और आप यह भी बतलाइये कि उपकरणोंके विना वह भवनको कैसे बनाता हैं? तथा भवनवर्ती पदार्थोंको बना-बना करके वह इस निरालम्ब आकाशमें उन्हें कहाँ पररखता हैं।।८३॥ यदि कहा जाय कि ईश्वरकी सृष्टि रचनेकी इच्छाके वशसे पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय विश्वके निर्माण के लिए प्रवृत्त होते हैं, तो यह कहिये कि वे अचेतन पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय विश्वका निर्माण कैसे कर सकते हैं? इस प्रकार तर्क-बलसे विचारनेपर ईश्वर जगत्का कर्त्ता सिद्ध नहीं होता है ।।८४।। अब आचार्य बुद्धके सर्वज्ञताका निषेध करते हैं-यथार्थवादी पुरुष बद्धको भी सर्वज्ञ नहीं कहते हैं, क्योंकि उसने प्रमाणादिसे विरुद्ध शून्यत्वादिका कथन किया हैं ।।८५।। प्रमाणसे अथवा अप्रमाणसे सर्वशून्यताके साधनमें जलमें चक्रवाक-युगलके समान दो विकल्प सामने आते है? अर्थात बौद्ध लोग यह बतावें कि वे सर्वशून्यताकी सिद्धि किसी प्रमाणसे करते है, अथवा विना किसी प्रमाणके ही करते है ।।८६।। प्रमाणसे सर्वशून्यताके सिद्ध करनेपर तो सर्व शन्यताका ही व्यतिक्रम हो जाता है, क्योंकि उस शून्यताके निषेध करनेवाले प्रमाणको आप बौद्धोंने अंगीकार कर लिया है ॥८७।। यदि कहा जाय कि हम लोग प्रमाणके विना ही सर्वशून्यताका साधन करते है, तो फिर सभी लोगोंका चिन्तित-मन चाहा-तत्त्व सिद्ध हो जायगा, उसका विना प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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