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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३०१ सर्वत्र सर्वदा तत्त्वे क्षणिके स्वीकृते सति । फलेन सह सम्बन्धो धार्मिकस्य कुतस्तनः ।। ८९ वध्यस्य वधको हेतुः क्षणिके स्वीकृते कथम् । प्रत्यभिज्ञा कथं लोकव्यवहारप्रवतिनी॥ ९. व्याघ्न्या: प्रयच्छतो देहं निगद्य कृमिमन्दिरम् । दातदेयविमूढस्य करुणा बत कीदृशी ।। ९१ जननी जगतः पूज्या हिंसिता येन जन्मनि । मांसोपदेशिनस्तस्य दया शौद्धोदनेः कुतः ।। ९२ यो ज्ञात्वा प्राकृतं धर्म भाषतेऽसौ निरर्थकः । निर्गुणो निष्क्रियो मूढ सर्वज्ञः कपिलः कथम् ।। ९३ आर्यास्कन्धानलादित्यसमीरणपुरःसरा: । निगद्यन्ते कथं देवा: सर्वदोषपयोधयः ।। ९४ गूथमश्नाति या हन्ति खुरश्रृङ्गः शरीरिणः । सा पशुगौं: कथं वन्द्याः वषस्यन्ती स्वदेहजम् ।। ९५ चेद्दुग्धवानतो वन्द्या महिषी कि न वन्द्यते । विशेषो दृश्यते नास्या महिषीतो मयाऽधिका ।। ९६ या तीर्थमनिदेवानां सर्वेषामाश्रयः सदा । ऊहते हन्यते या गौमविक्रीयते कथम् ॥ ९७ मुसलं देहली चुल्ली पिप्पलश्चम्पको जलम् । देवा येरभिधीयन्ते वय॑न्ते ते: परेऽत्र के ॥ ९८ के कैसे निषेध किया जा सकेगा ।।८८।। इस प्रकार बौद्धोंके द्वारा मानी गई सर्वशून्यता सिद्ध नहीं होती है, अतः उसे मानना मिथ्या है। तथा तत्त्वको सर्व देश और सर्व कालमें सर्वथा क्षणिक स्वीकार करने पर धर्मके फलका धर्मात्मा पुरुषके साथ सम्बन्ध कैसे बन सकेगा ।।८९।। भावार्थयदि जीवको सर्वथा क्षणिक माना जाय तो जो धर्म करेगा, वह उसी क्षण नष्ट हो जायगा तब उस धर्मका फल उसे कसे मिल सकेगा? इसी प्रकार क्षणिक वस्तुके स्वीकार करने पर हिंसक जीव हिसाका हेतु कैसे माना जा सकेगा? तथा देन-लेन आदि लोक व्यवहारकी चलाने वाली प्रत्यभिज्ञा कैसे संभव होगी ॥९०।। भावार्थ-इसने मुझे पहले ऋण दिया था, आज मै उसे दे दे रहा हूँ,इस व्यक्तिसे मुझे इतना लेना है आदि लोक व्यवहार प्रत्यभिज्ञान-पूर्वक ही चलते है । यदि सर्वथा क्षणिकवाद माना जाय, तो यह सर्व व्यवहार समाप्त हो जायगा। यह शरीर कृमियोंका घर हैं' ऐसा कह कर व्याघ्रीके लिए शरीर-समर्पण करने वाले दाता और देयके ज्ञानसे विमूढके करुणा कैसे संभव है, यह अति दुःखकी बात है ॥९१।। जिसने जगत्की पूज्य अपनी जननीको जन्मकालमें ही मार दिया और बुद्धत्व प्राप्तिके पश्चात् मांस खानेका उपदेश दिया, उस शुद्धोदन राजाके पुत्र बुद्धके दया कैसे मानी जा सकती है ।।९२॥ इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि बुद्ध भो सर्वज्ञ नहीं हैं । अब आचार्य सांख्यमतके प्रवर्तक कपिलके भी सर्वज्ञताका निराकरण करते हुए कहते हैं कि जो ज्ञानको जड प्रकृतिका धर्म कहता हैं और पुरुषको निर्गुण, निष्क्रिय और प्रयोजन-रहित कहता है वह मूढ कपिल सर्वज्ञ कैसे हो सकता हैं ।।९३।। इस प्रकार आर्या (देवी), स्कन्द (कार्तिकेय),अग्नि, सूर्य, समीरण (पवन) आदिक जो सर्व दोषोंके समुद्र है, वे देव कैसे कहे जा सकते हैं ।।९४॥ जो गाय विष्टा खाती हैं, खुर और सींगोंसे प्राणियोंको मारती है और अपने पुत्र के साथ काम-सेवन करती हैं, वह पशु गाय कैसे वन्दनीय हो सकती है ।।९५। यदि कहा जाय कि वह लोगोंको दुग्ध दान करनेसे वंद्य है, तो फिर इसी कारणसे भैंस क्यों वन्दनीय नहीं हैं? क्योंकि दुग्ध देनेकी दृष्टिसे तो हमें भैसकी अपेक्षा गायमें कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है ।।९६।। जो गायको सभी तीर्थों, मुनिजनों और देवोंका सदा आश्रय मानते है आश्चर्य है कि वे मूढ लोग उसे क्यों दुहते है, क्यों मारते हैं और क्वों बेचते है ।।९७।। इसके अतिरिक्त जो लोग मुसल, देहली. चूल्हा, पीपल,चंपा और जल आदिको भी देव कहते है, उन लोगोंके द्वारा इस लोकमें देव माननेसे और कोन छोडा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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