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________________ ३०२ श्रावकाचार-संग्रह इत्थं विविच्य परिमुच्य कुदेववर्ग गण्हाति यो जिन पति मजते स तत्त्वम् । गृहाति यः शुभमति: परिमुच्य काचं, चिन्तामणि स लमते खलु किं न सौख्यम् ॥ ९९ मिथ्यात्वदूषणमपास्य विचित्रदोषं संरूढसंसृतिवधूपरितोषकारि । सम्यक्त्वरत्नममलं हृदि यो निधत्ते, मुक्त्यङ्गनाऽमितगतिस्तमुपैति सद्यः ॥ १०० इत्यमितगतिकृतश्रावकाचारे चतुर्थः परिच्छेदः ।। पञ्चमः परिच्छेदः मद्यमांसमधुरात्रिभोजन क्षीरवृक्षफलवर्जनं विधा। कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् ॥ १ मद्यपस्य धिषणा पलायते दुर्भगस्य वनितेव दूरतः। निन्द्यता च लभते महोदयं क्लेशितेव गुरुवाक्यमोचितः ॥ २ विव्हलः स जननीयति प्रियां मानसेन जननीं प्रियीयति । किङ्करोयति निरीक्ष्य पार्थिवं पाथिवीयति कुधीः स किङ्करम् ।। ३ सर्वतोऽप्युपहसन्ति मानवा वाससीमपहरन्ति तस्कराः । मूत्रयन्ति पतितस्य मण्डला विस्तृत विवरकाङ्क्षया मुखे ।। ४ जायगा? अर्थात् फिर तो सभी भली बुरी वस्तुओंको देव मानना चाहिए ॥९८॥ इस प्रकारसे जो भले प्रकार विचार करके कुदेवोंके समुदायको छोडकर जिनेन्द्रदेवका आश्रय ग्रहण करता है, वह वास्तविक तत्त्वका सेवन करता हैं । जो श्रेष्ठ बुद्धि पुरुष काचको छोडकर चिन्तामणि रत्नको ग्रहण करता है, वह निश्चयसे क्या सुखको नहीं पाता है? अर्थात् सुखको पाता ही है ॥९९॥ संसति (संसार) रूपी वधूको सन्तुष्ट करनेवाले अर्थात् संसारको बढानेवाले और नाना प्रकारके दोषोंको करनेवाले मिथ्यात्वरूपी महा दूषणको दूर करके निर्दोष निर्मल सम्यक्त्वरूपी रत्नको अपने हृदयमें धारण करता है,वह पुरुष अमित ज्ञानका धारक होकर शीघ्र ही मुक्ति रूपी अंगना को प्राप्त करता है।।१०।। इस प्रकार अमितगति-विरचित उपासकाचारमें चतुर्थ परिच्छेद समाप्त हुआ। पांचवा परिच्छेद व्रतोंके ग्रहण करनेकी इच्छासे ज्ञानी जन मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन और क्षीरी वृक्षोंके फलोंके भक्षणका मन वचन कायसे त्याग करते हैं, क्योंकि इनके त्यागका परिपालन करने पर व्रत परिपुष्ट होते हैं । १॥ अब आचार्य सर्वप्रथम मद्यपानके दोष बतलाते हैं-मद्य पीने वालेकी बुद्धि इस प्रकार भाग जाती है, जैसे कि अभागी स्त्री उसे दूरसे छोड कर भाग जाती है। तथा उसकी निन्दा उत्तरोत्तर बढती है, जैसे कि गुरुके वचन न मानने वालेके क्लेश वृद्धिको प्राप्त होता हैं ।।२।। मद्यपानसे विव्हल चित्त हुआ पुरुष अपनी स्त्रीके साथ माताके समान आचरण करता है और माताके साथ स्त्री के समान आचरण करता है। इसी प्रकार राजाके साथ किकरके समान आचरण करता हैं और किंकरके साथ राजाके समान आचरण करता है ।।३।। मद्यपायी पुरुषकी सभी मनुष्य सब ओरसे हँसी करते है, चोर उसके वस्त्र चुरा लेते हैं और कुत्ते छेद समझ कर भूमि पर पडे हुए उसके खुले मुखमें मूत देते हैं ।। ४॥ मदिरा पान करने वाला पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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