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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३०३ मंक्ष मछति बिभेति कम्पवे फत्करोति हदते प्रछर्दति । खिद्यते स्खलति वीक्षते दिशो रोदिति स्वपिति जक्षतीय॑ति ।। ५ ये भवन्ति विविधाः शरीरिणस्तत्र सूक्ष्मवपुषो रसाङ्गिकाः । तेऽखिला झटिति यान्ति पञ्चतां निन्दितस्य चषकस्य पानतः ।। ६ वारुणीनिहितचेतसोऽखिला यान्ति कान्तिमतिकीर्तिसम्पदः । वेगतः परिहरन्ति योषितो वीक्ष्य कान्तमपराङ्गनागतम् ।। ७ गायति भ्रमति वक्ति गद्गदं रौति धावति विगाहते क्रमम् । हन्ति हृष्यति न बुध्यते हितं मद्यमोहितमतिविषीदति ।। ८ तोतुदीति भविनः सुरारतो वावदीति वचनं विनिन्दितम् । मोमुषीति परवित्तमस्तधोर्बोमजीति परकीयकामिनीं ।। ९ नानटीति कृतचित्रचेष्टितो नन्नमीति पुरतोऽजनं जगम् । लोलठीति मवि रासमोपमो रारहीति सुरापविमोहितः ।। १. सीधलालसधियो वितन्वते धर्मसंयमविचारणां यके। मेरुमस्तकनिविष्टमूर्तयस्ते स्पृशन्ति चरणैर्भुवस्तलम् ।। ११ दोषमेवमवगम्य वारुणी सर्वथा तु द'वयन्ति पण्डिताः । कालकूरमवबुध्य दुःखदं भक्षयन्ति किम जीवितार्थिनः ॥ १२ शीघ्र ही मच्छित हो जाता हैं, डरता है, काँपता है, चिल्लाता हैं,रोता है, वमन करता है, खेद. खिन्न होता है, गिरता हैं, सर्व दिशाओंमें देखता हैं, पुन: रोने लगता है. सोता है, अकड जाता है और अन्य लोगोंसे ईर्ष्या करता है ।।५।। इस निन्द्य मद्यके पीनेसे उस मदिरामें जोनाना प्रकारके सूक्ष्म शरीरवाले असंख्य रसांगी जीव उत्पन्न है, वे सब शीघ्र ही मरणको प्राप्त हो जाते हैं ।।६।। मदिरामें आसक्त चित्तवाले पुरुषको कान्ति बुद्धि कोति और सम्पत्ति आदि सभी विशेषताएँ उसको छोडकर वेगसे इस प्रकार दूर चली जाती है, जिस प्रकारसे कि अन्य स्त्रीमें आसक्त अपने पतिको देखकर उसकी विवाहिता स्त्री उसे लोडकर चली जाती है ।।७।। मद्य-पानसे मोहित बद्धिवाला शराबी कभी गाता है, कभी मूच्छित हो भ्रमयुक्त होता हैं, कभी गद्गद वचन बोलता है, कभी रोता है, कभी इधर-उधर दौडता हैं, कभी किसीको मारता हैं, कभी हर्षित होता हैं और कभी विषादको प्राप्त होता हैं. किन्तु अपने हितको नहीं जानता हैं ।।८।। सुरा-पानमें रत पुरुष कभी प्राणियोंको सताता हे,कभी निन्दित वचन बोलता हैं, कभी पराये धनको चुराता हैं और कभी वह नष्टबुद्धि परायी स्त्रीको भोगने लगता है ॥९।। मदिरासे मोहित हुआ मनुष्य कभी नाना प्रकारकी चेष्टाएं करता हुआ नाचता हैं, कभी प्रत्येक मनुष्यको नमस्कार करने लगता हैं, कभी गर्दभके समान भू मपर लोटने लगना हैं और उसीके समान रेंकने लगता हैं ॥१०॥ मदिरा-पानकी लालसा युक्त बुद्धिसे जो मनुष्य धर्म और संयमके पालन करने का विचार करते हैं, वे मनुष्य मेरुपर्वतके मस्तकपर बैठकर अपने चरणोंसे भूतल का मानों स्पर्श करना चाहते हैं ।।११।। इस प्रकारसे मदिरा-पानके अनेक दोषोंका जानकर पण्डितजन उसका सर्वथा ही पान नहीं करते १ म. 'न हि धयंति' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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