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________________ ३०४ श्रावकाचार-संग्रह मांसभक्षण विषक्तमानसो यः करोति करुणां नराधमः । भूतले कुलिशव न्हिता पिते नूनमेष वितनोति वल्लरीम् ।। १३ जायते न पिशितं जगत्त्रये प्राणिघातनमृते यतस्ततः । मंक्षु मूलमुदखानि खादता ही दया झटिति धर्मशाखिनः ।। १४ देहिनो भवति पुण्यसञ्चयः शुद्धया न कृपया विना ध्रुवम् । दृश्यते न लतयाऽऽमया विना सार्द्रया जगति पुष्पसञ्चयः ।। १५ भक्षयन्ति पिशितं दुराशया ये स्वकीयबलपुष्टिकारिणः । घातयन्ति भवभागिनस्तके खादकेन न विनाऽस्ति घातकः ॥ १६ हन्ति स्वादति पणायते पलं मन्यते दिशति संस्करोति यः । यान्ति ते षडपि दुर्गंत स्फुटं न स्थितिः खलु परत्र पापिनाम् ।। १७ अत्ति यः कृमिकुलाकुलं पलं पूयशोणितवसा दिमिश्रितम् । तस्य किञ्चन न सारमेयतः शुद्धबुद्धिरभिवेक्ष्यतेऽन्तरम् ।। १८ आमिषाशनपरस्य सर्वथा विद्यते न करुणा शरीरिणः । पापमर्जति तथा विना परं बम्भ्रमीति भवसागरे ततः ।। १९ नास्ति दूषणमिहामिषाशने यैर्हषोकवशनिगद्यते । व्याघ्र सूकरकिरात धीवरास्सैनिकृष्टहृदयैर्गुरुकृताः ॥ २० है । कालकूट विषको महादुःखदायी जानकर भी क्या जीनेके इच्छुक पुरुष उसे खाते है ? अर्थात् नहीं खाते है ।। १२ । अब आचाय मांस भक्षणका तिषेध करते है-मांस भक्षण में आसक्त चित्तवाला जो अधम मनुष्य करुणाको करना चाहता है, वह निश्चयसे वज्राग्निसे सन्तप्त भूतल पर लताको विस्तारना चाहता है ॥ १३ ॥ यतः जगत्त्रयमें भी प्राणिघात के विना मांस उत्पन्न नहीं होता है, अतः मांस खानेवाले पुरुषके द्वारा काटे गये धर्मरूप वृक्ष की मूलभूत दया ही शीघ्र खोद डाली गई समझना चाहिए || १४ || शुद्ध दयाके विना जीवके पुण्यका संचय निश्चयसे कभी नहीं हो सकता हैं । जगत् में मैने हरी-भरी लताके विना पुष्पों का संचय कहीं नहीं देखा हैं ॥१५॥ जो दुष्ट चित्त पुरुष अपने शरीर के बलको पुष्ट करनेकी इच्छासे मांसको खाते है, वे नियमसे अन्य प्राणियोंका घात करते हैं, क्योंकि खानेवालेके विना घातक कसायी जीव घात नहीं करता । अर्थात् कसायी मांस-भक्षकोंके लिए ही जीवघात करता है ।। १६ ।। जो जीव-घात करता है, मांस खाता है, उसे बेचता हैं, उसके खानेकी अनुमोदना करता हैं, खानेका उपदेश देता है और मांस पकाता है ये छहों ही पापी निश्चयसे दुर्गतिको जाते हैं, क्योंकि पापियोंकी परलोक में अन्यत्र स्थिति हो नहीं सकती हैं ।। १७ ।। जो मनुष्य कृमि- कुलसे व्याप्त और पीब, रक्त, चर्वी आदिसे मिश्रित मांसको खाता हैं, शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष उसका कुत्ते से कुछ भी अन्तर नहीं देखते है || १८ || मांस खाने में तत्पर पुरुषके करुणा सर्वथा ही नहीं होती हैं और करुणाके विना वह पापका ही उपार्जन करता हैं, जिसके फलसे वह भव-सागर में ही परिभ्रमण करता रहता हैं ||१९|| जो इन्द्रियोंके वशीभूत हुए मनुष्य यह कहते है कि मांस खाने में यहाँ कोई दोष नहीं है, उन निकृष्ट चित्त पुरुषोंने व्याघ्र, भील और धीवरोंको अपना गुरु बना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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