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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकधर्म-वर्णन २३ हिद-मिदवयणं भासदि संतोसकरं तु सध्वजीवाणं । धम्म-पयासणवयणं अणुव्वदी होदि सो विदिओ ।। ३३ जो बहुमुल्ल वत्थु अप्पयमुल्लेण णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि ||३४ जो परद्रव्वं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण। दिढचित्तो सुद्धमई अणुव्वई सो हवे तिदिओ॥३५ असुइमयं दुग्गंध महिलादेहं विरज्जमाणो जो। रूवं लावण्णं पि य मणमोहण-कारण मणइ ॥३६ जो मण्णदि परमहिलं जणणी-बहिणी-सुआइ सारिच्छं ।। मण-वयणे काएण वि बंभवई सो हवे थलो ।। ३७ जो लोहं णिहणित्ता संतोसरसायणेण संतुट्ठो। णिहदि तिण्हा दुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सम्वं ॥३८ जो परिमाणं कुम्वदि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं । उवओगं जाणित्ता अणुव्वद पचमं तस्स ।। ३९ जह लोहणासणठ्ठ संगपमाणं हवेइ जोवस्त । सवदिसाण पमाणं तह लोहं णासए णियमा ॥४. जं परिमाण कोरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं । उ ओगं जाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढमं ॥४१ कज्ज किपि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो। सो खल हदि अणत्थो पंचपयारो वि सो विविहो ॥४२ परदोसाण वि गहणं परलच्छीणं समीहणं ज च पर-इत्थी-अवलोओ पर-कलहालोंयण पढमं॥४३ ।।३२-३३ ।। अब तीसरे अचौर्याणवतका स्वरूप कहते हैं- जो बहुत मल्यवाली वस्तुको अल्प मूल्यसे नहीं लेता है, दूसरे को भूली हुई भी वस्तुको नहीं ग्रहण करता है, जो अल्प लाभमें भी सन्तोष धारण करता हैं, जो पराये द्रव्यको, मायासे, लोभसे, क्रोधसे और मानसे अपहरण नही करता है, जो धर्म में दृढ चित्त है और शुद्ध बुद्धिका धारक है, वह तीसरे अणुव्रतका धारी श्रावक है ।। ३४-३५ । अब चौथे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहते है-जो पुरुष स्त्रीके देहको अशुचिमय और दुर्गन्धित देखकर उससे विरक्त होता हुआ उनके रूप लावण्यको भी मनके मोहित करनेका कारण मानता है और जो पराई स्त्रियोंको अपनी माता, बहिण और पुत्रीके सदृश मन, वचन कायसे समझता है, वह स्थल ब्रह्मचर्यव्रतका धारक है ।। ३६-३७ ।। अब पाँचवे परिग्रहपरिमाणाणवतका स्वरूप कहते है-जो पुरुष लोभको जीतकर सन्तोषरूप रसायनसे सन्तुष्ट रहता है और संसारकी सर्व वस्तुओंको बिनश्वर मानता हुआ दुष्ट तृष्णाका विनाश करता है,तथा अपने उपयोगको जानकर आवश्यक धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि दश प्रकारके परिग्रहका परिमाण करता हैं, उसके पांचवा अणुव्रत होता है ।। ३८-३९ । अब तीन गुणवतोंमें से पहले दिग्व्रतनामक गुणव्रत का स्वरूप कहते है-जिस प्रकार लोभके नाश करनेके लिए जीवके परिग्रहका प्रमाण होता है, उसी प्रकार लोभका नाश करने के लिए नियमसे सर्व दिशाओंका भी प्रमाण करना आवश्यक है। जो पुरुष उपयोगी जानकर सुप्रसिद्ध सभी दिशाओंमें जाने-आनेका जीवन भरके लिए परिमाण करता है, उसके प्रथम गुणव्रत जानना चाहिए ॥ ४०-४१ ।। अब दूसरे अनर्थदण्डवत नामक गुणवतका स्वरूप कहते हैं - जो पदार्थ अपना कुछ भी कार्य नही साधता है, किन्तु नित्य ही पापको करता है, वह पदार्थ अनर्थ कहलाता है, वह अनर्थ दण्ड पांच प्रकारका है और प्रत्येक भेद अनेक रूप भेद है ॥ ४२ ॥ अन्य पुरुषके दोषोंको ग्रहण करना, दूसरे की लक्ष्मीका चाहना, परस्त्रीका अवलोकन करना और अन्यकी कलहको देखना, यह अपध्यान नामका प्रथम अनर्थदण्ड है ।। ४३ ॥ खेती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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