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________________ २२ श्रावकाचार - संग्रह जो ण विजानदि तच्च सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं । जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥ २३ रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तमं जोयं । रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्वसिद्धियरं ॥ २४ सम्मत्तगुणपहाणी देविद-रद-वंदिओ होदि चत्तवओ वि य पावदि सग्गसुहं उत्तमं वहिं ॥ २५ सम्माइट्ठी जीवो दुग्गविहेदुदु णं बंधदे कम्मं । जं बहुभवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ।। २६ बहुतससम ण्णदं जं मज्जं मंसादि णिदिदं दव्बं । जो ण य सेवदि नियदं सो दंसणसावओ होदि ॥ २७ जो दिढचित्तो कीरदि एयं पि वयं णियाण-परिहीणो वेरग्भावियमणो सो वि य दंसणगुणो होदि ।। २८ | पंचाव्ययधारी गुणवय- सिक्खाव एहिं संजुत्तो। दिढचित्तो समजुत्तो णाणी वयसावओ होदि ॥ २९ जो वावरे सदओ अप्पाणसमं परं पि मण्णतो णिदण-गरहणजुत्तो परिहरमाणो महारंभ । ३० तसघादं जो ण करदि मण-वय-काएहि णेव कारयदि। कुव्वंतं पण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स ॥ ३१ हिंसा वयण ण वयदि कक्कस वयणं पि जो ण भ सेवि । गिट्ठर वयणं पि तहा ण मासदे गुज्झ वयणं पि ।। ३२ निश्चय से सर्वद्रव्यों और सर्वपर्यायों को जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्वमें शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है || २२ || जो तत्त्वको नहीं जानता है, किन्तु जिन-वचन में श्रद्धान करता है कि जिनेन्द्रोंने जो कहा है, उस सबकी में श्रद्धा करता हूँ, ऐसा निश्चयवाला जीव भी सम्यग्दृष्टि है || २३ || सम्यग्दर्शन सर्व रत्नोंमें महारत्न है, सर्वयोगोंमें उत्तम योग है, सर्व ऋद्धियोंमें महाऋद्धि है और सर्व प्रकारकी सिद्धिका करने वाला है || २४|| सम्यक्त्व गुणकी प्रधानता वाला जीव देवेन्द्रोंसे और नरेन्द्रोंसे वन्दनीय होता है और व्रत-रहित होने पर भी नाना प्रकारके उत्तम स्वर्गसुखको पाता है ।। २५ ।। सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गतिके कारणभूत पापकर्म को नहीं बाँधता है और पूर्वके अनेक भवों में बंधा हुआ जो दुष्कर्म है, उसका भी नाश करता है ।।२६।। अब पहले दार्शनिक श्रावकका स्वरूप कहते हैं - जो सम्यक्त्वी जीव अनेक सजीवोंसे भरे हुए मद्य-मांसादि निन्द्य द्रव्यका नियमसे सेवन नहीं करता है, वह दार्शनिक श्रावक है ||२७|| जो दृढ़ चित्त होकर उक्त एक भी व्रतका पालन करता है, निदानसे रहित हैं, और वैराग्यसे जिसका मन भरा हुआ है, वह पुरुष दर्शन गुण वाला श्रावक है ||२८|| अब दूसरे व्रतिक श्रावकाका स्वरूप कहते हैं -- जो ज्ञानी पांच अणुव्रतोंका धारक है, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंसे संयुक्त है, दृढचित्त है और समभावी है, वह व्रतिक श्रावक है ||२९|| अब अहिंसाणुव्रतका स्वरूप कहते हैं जो अपने समान दूसरे को भी मानता हुआ उनके साथ दया सहित व्यवहार करता है, अपनी निन्दा और गर्हास युक्त है, महानृ आरम्भोंका परिहार करता हुआ जो सजीवोंके घातको मन वचन कायसे न स्वयं करता है, न दूसरोंसे कराता है और न करते हुए पुरुष की अनुमोदना ही करता हैं, उसके पहला अहिंसाणुव्रत होता हैं ||३०-३१ || अब सत्याणुव्रत का स्वरूप कहते हैं-जो हिंसा करनेवाले वचन नहीं बोलता हैं, कर्कश वचन भी नहीं कहता हैं, तथा निष्ठुर वचन और दूसरे की गुप्त बात को भी प्रकट नहीं करता हैं, किन्तु सर्व जीवों को सन्तुष्ट करनेवाले fe मित प्रिय, एवं धर्म-प्रकाशक वचन बोलता हैं, वह दूसरे सत्याणुव्रत का धारक श्रावक हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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