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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकधर्म-वर्णन जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्त-कलत्ताइ सव्व अत्थेसु । उवसमभावे भावदि अप्पाणं मणदि तिणमेत्तं ॥१२ विसयासत्तो वि सया सव्वारभेसु वट्टमाणो वि । मोहविलासो एसो इदि सव्वं मण्णदे हेयं ॥१३ उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहस्मिय-अणराई सो सद्दिष्टि हवे परमो ।।१४ देहमिलियं पि जीवं णियणाणगणेण मुणदि जो भिण्णं । जीवमिलियं पि देहं कंचुवसरिसं वियाणेदि ॥१५ णिज्जियदोसं देवं सम्वजिवाणं दयावरं धम्म । वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सुद्दिट्ठी।।१६ दोससहियं पि देवं जीवहिंसाइ संजदं धम्म । गंथासतं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥१७ ण य कोवि देदि लच्छी ण कोवि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयार अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ॥१८ भत्तीऍ पुज्जमाणो वितरदेवोवि देदि जदि लच्छी। तो कि धम्मे कोरदि एतं चितेइ सद्दिट्ठी।। १९ ज जस्स जम्मि देसे जण विह जेण. जम्मि कालम्मि। जादं जिणेणं णियदं जम्म वा अहव मरणं वा ॥२० तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि। को सक्कदि वारे, इन्दो वा अह जिणिदो वा ॥२१ एवं जो णिच्छयदो जाणदि दवाणि सव्वाणि सव्वपज्जाए।सो सद्दिट्टि सुद्धोजो संकदि सो हु कुद्दिटि२२ वशसे और व्यवहारको चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा नियमसे अनेकान्तात्मक तत्त्वका श्रद्धान करता है, जो आदरके साथ जीव-अजीव आदि नौ प्रकारके पदार्थोका श्रुतज्ञानसे और नयोंसे भलीभाँति जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं ।।१०-११।। जो पुत्र-स्त्री आदि सर्व पदार्थो में गर्वको नहीं करता हैं, उपशमभावको भाता है और अपनेको तृण-समान समझता हैं, विषयोंमे आसक्त होता हुआ भी और सदा सर्व आरम्भों में प्रवृत्त होता हुआ भी जो ‘यह मोहकर्मका विलास हैं' ऐसा समझकर सबको हेय मानता हैं, जो उत्तम गुणोंके ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधओंको विनय करता है आर साधर्मी जनों का अनुरागी है, वह परम सम्यग्दृष्टि है, ॥१२-१४॥ जो देहमें मिले हए भी जीवको अपने ज्ञानगणसे अर्थात् भेदविज्ञानसे भिन्न जानता हैं और जीवसे मिले हुए भी देहको साँप की कांचली के समान भिन्न जानता हैं, जो रागादि दोषों के विजता अरिहन्त को देव मानता हैं, सर्व जीवों पर दया करनेको परम धर्म मानता हैं और परिग्रहके त्यागीको गुरु मानता है, वह निश्चयसे सम्यग्दृष्टि हैं ॥१५-१६॥ जो दोष-सहित व्यक्तिको देव मानता हैं, जीव-हिंसादिसे संयुक्त कार्यको धर्म मानता हैं और परिग्रह में आसक्त पुरुषको गुरु मानता हैं, वह निश्चयसे मिथ्यादृष्टि हैं ।।१७।। जो लोग हरि-हरादिकको लक्ष्मी-दाता मानकर पूजते हैं, उन्हें लक्ष्य करके आचार्य कहते है कि न तो कोई किसीको लक्ष्मी देता है और न कोई अन्य पूरुष जीवका उपकार ही करता हैं। पूर्व में किये हए शुभ और अशभ कर्म ही जीवका उपकार और अपकार करते है ।।१८। यदि भवितसे पूजा गया व्यन्तर देव भी लक्ष्मी दे सकता हैं,तो फिर धर्म करने की क्या आवश्यकता है इस प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने मन में विचार करता है ।।९९।। जिस जीवके जिस देशमें, जिस काल में जिस प्रकारसे जो जन्म अथवा मरण जिन देवने नियत रूपसे जाना है, उस जीवके उसी देश में, उसी कालमें और उसी कारके अवश्य होगा। उसे निवारण करनेके लिए इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई भी नहीं रोक सकता ॥२०-२१।। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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