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________________ स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकधर्म-वर्णन जो जाणदि पच्जवखं तियाल-गुण-पज्जएहि संजुत्तं । लोयालोयं सयलं सो मवण्हू हवे देवो ॥१ जो ण हवदि सव्वण्हू ता कोजाणदि अदिदियं अत्थं । इंदियणाणं ण मुणदि थूलपि असेसपज्जायं ।।२ तेणुवइछि धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारहभेओ दहभेओ भासिओ विदिओ॥३ सम्गइंसणसुद्धो रहिओ मज्जाइ-थूल दोसेहिं । वयधारी सामाइउ पव्ववई पासुयाहारी ॥४ राईभोयणविरओ मेहुण-सारंभ-संगचत्तो य । कजाणुमोयविरओ उद्दिट्टाहारविरदो य ॥५ चदुगदिभव्वो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाण पज्जत्तो। संसारतडे णियडो णाणी पावेइ सम्मत्तं ॥६ सत्तण्हं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं । खयदो य होदि खइयं केवलिमूले मणुस्सस्स ।।७ अण-उदयादो छण्हं सजाइरूवेण उदयमाणाणं । सम्मत्तकम्म-उदये खयउवसमियं हवे सम्मं ।।८ गिण्हदि मुंचदि जीवो वे सम्मत्ते असंखयाराओ। पढम कसाय विणास देसवयं कुणदि उक्कस्सं॥९ जो तच्चमणेयंत णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं । लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणटंठ च ॥१० जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि गवविहं अत्थं । सुदण ण णएहि य सो सद्दिठ्ठी हवे सुद्धो॥११ जो त्रिकालवर्ती गुण-पर्यायों से संयुक्त समस्त लोक और अलोक को (और उनमें वर्तमान द्रोंको) प्रत्यक्ष जानता है, वह सर्वज्ञ देव है ।।१।। यदि सर्वज्ञ न होता, तो अतीन्द्रिय पदार्थको कौन जानता? इन्द्रिय ज्ञान तो समस्त स्थूल पर्यायोंकों भी नहीं जानता है॥२॥ उस त्रिलोक-त्रिकालज्ञ सर्वज्ञके द्वारा कहा हुआ धर्म दो प्रकारका है-एक तो परिग्रहासक्त गृहस्थोंका धर्म और दूसरा परिग्रह-रहित मुनियों का धर्म । पहला धर्म बारह भेदवाला और दूसरा धर्म दश भेद वाला कहा गया है॥३॥ उनमें से गृहस्थ या श्रावक धर्म के बारह भेद इस प्रकार हैं - १.शंकादि दोषों से रहित शुद्धसम्यग्दृष्टि, २. मद्य-मांसादि-भक्षणरूप स्थूल दोषों से रहित सम्यग्दृष्टि,३. व्रतधारी, ४. सामायिकव्रती, ५ पर्वव्रती, ६ प्रासुकाहारी, ७. रात्रि भोजनत्यागी,८. मैथुनत्यागी, ९ आरम्भत्यागी. १०,परिग्रहत्यागी, ११.कार्यानुमोदविरत और १२.उद्दिष्ट-आहार-विरत ||४-५|| अब श्रावकके प्रथम भेदका वर्णन करते हुए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के योग्य जीवका वर्णन करते हैं-चारों गतियोंमें उत्पन्न हुआ भव्य संज्ञी विशुद्ध परिणामी जागता हुआ पर्याप्तक ज्ञानी जीव संसार-तटके निकट आने पर सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ||६|| दर्शनमोहनीय कर्म की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति, तथा चारित्र मोह कर्म को अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, और लोभ. इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । तथा इन ही सातों प्रकृतियोंका केवलीके पादमूलमें क्षय करनेवाले मनुष्य के क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है ।। ७ ।। उपयुक्त सात प्रकृतियों में समान जातीय प्रकृतियोंके रूपसे उदय होने वाली छह प्रकृतियोंके अनुदयसे और सम्यक्त्यप्रकृतिके उदय होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है ॥ ८ ॥ औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्कका विनाश अर्थात विसंयोजन और देशवत इनको यह जीव उत्कर्षसे असख्य वार ग्रहण करता और छोडता हैं।।।९।। भावार्थउक्त चारोंको यह जीव अधिक से अधिक पल्यसे असंख्यातवे भाग वार ग्रहण कर छोड सकता है । अब सम्यग्दष्टि के तत्वश्रद्धान आदि परिणति का विशेष वर्णन करते है- जो लोगोंके प्रश्नों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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