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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीत्र सुर्तमव जननी माँ शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमित्र गुणभूषा कन्यका सम्पुनीताज्जिनपतिपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ।। १५०
इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्यविरचिते रत्नकरण्डकापरनाम्नि उपासकाध्ययने श्रावकपदवर्णनं नाम सप्तमाध्ययनं ॥ ७ ॥
उसे तीनों लोकों में सर्व पुरुषार्थो की सिद्धि स्वयं प्राप्त होती हैं । जैसे कि स्वयं वरण करनेवाली कन्या योग्य पतिको स्वयं प्राप्त होती हैं ।। १४९ ।।
अन्तिम मंगल
जिनेन्द्र देवके चरण-कमलोंको देखने वाली सुखों को भूमि ऐसी सम्यग्दर्शनरूपी दृष्टि लक्ष्मी मुझे उसी प्रकार सुखी करे, जिस प्रकार कि कामी पुरुषको उसकी कामिनी स्त्री सुखी करती हैं, वह दृष्टिलक्ष्मी शुद्ध शीलवाली जननीके समान मेरी रक्षा करे और वह दृष्टलक्ष्मी मुझे उस प्रकारसे पवित्र करे, जैसे कि गुण - भूषित कन्या कुलको पवित्र करती हैं ।। १५० ।।
इस प्रकार स्वामि समन्तभद्राचार्य - विरचित रत्नकरण्डक नामवाले उपासकाध्ययनमें श्रावक के ग्यारह पदोंका वर्णन करनेवाला सातवां अध्ययन समाप्त हुआ ।
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