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________________ १८ श्रावकाचार-संग्रह मलबीजं मलन्मलं गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सम् । पश्यन्नगङमनगद्विरमति यो ब्रम्हचारी सः॥१४३ सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्मविनिवृत्तः ॥१४४ बाहोष दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपर: परिचित्तपरिग्रहाद्विरतः १४५ अनुमतिगरम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ।।१४ . गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुकृष्टश्चेलखण्डधरः ॥१४७ पापमरातिधर्मो बन्धर्जीवस्य चेति निश्चिन्बन् । समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता ध्रुवं भवति ।। १४८ येन स्वयं वोतकविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम् । नीतम्तमायाति पतीच्छयव सर्वार्थसिद्धस्त्रिषु विष्टपेषु ।। १४९ रात्रिभक्ति विरतश्रावक हैं।।३४२।। सातवे ब्रह्मचारी श्रावक पदका स्वरूप-जो परुष मलका बीज मलका आधार, मलको बहनेवाला, दुर्गन्धसे युक्त और वीभत्स आकार वाले स्त्रीके अंगको देखकर अनंगसेवनसे विराम लेता हैं, अर्थात् स्त्री सेवनका सर्वथा त्याग करता है, वह ब्रह्मचारी श्रावक है ॥१४३॥ आठवे आरम्भ विरत श्रावक पदका स्वरूप-जो जीवहिंसा का रणभूत सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भसे निवृत्त होता है वह आरम्भविनिवृत्त श्रावक कहा जाते है ।। १४४॥नवे परिग्रह विरत श्रावक-पदका स्वरूपजोंधन धान्यादि बाह्य दशों प्रकारको वस्तुओंमे ममत्वको छोडकर निर्ममत्व भावनामें निरत रहता है, मायाचार आदिको छोडकर स्वस्थ आत्मस्थ) रहता है और परम सन्तोषको धारण करता है, वह चित्त में संसार रूपसे बसे हुए परिग्रहमे विरत श्रावक जानना चाहिए ॥१४५॥ दशवे अनुमति विरत पदधारी श्रावकका स्वरूप-जिसके निश्चयसे गह के कृषि आदि आरम्भमें, परिग्रहमें और इस लोक सम्बन्धी लौकिक कायोंमें अनुमोदना नही है वह समभाव का धारक अनुमतिविरत श्रावक मानना चाहिए ।।१४६।। ग्यारहवे उद्दिष्टविरत पदधारी धावक का स्वरूप-जो घरसे मुनियोंके निवास वाले वन में जाकर और गुरु के समीप ब्रतोंका ग्रहण करके भिक्षावृत्तिसे आहार ग्रहण करते हुए तपस्या करता हैं और वस्त्र-खण्डको धारण करता हैं, वह उत्कृष्ट श्रावक हे ॥१४७।। यद्यपि ग्रन्थकारने इस पदके भेदोंको नही कहा हैं, तथापि 'चेलखण्डघर' पदसे लंगोटी रखने वाले एक छोटा वस्त्र रखनेवाले ऐलक और क्षुल्लकका ग्रहण हो जाता हैं । । ग्रन्थका उपसंहार जीवका पाप शत्रु है, और धम बन्धु है,' ऐसा हृदयमें निश्चय करता हुआ पुरुष यदि समय (आगम) को जातना हैं, तो वह निश्चय से वह श्रेयो ज्ञाता अर्थात् आत्म कल्याणका जानकार है ।।१४८॥ धर्मके फलका उपसंहार ___ जिस भव्य जीवने अपने आत्माको निर्दोष विद्या (सम्यग्ज्ञान ) निर्दोष दृष्टि (सम्यग्दर्शन और निर्दोष क्रिया ( सम्यक्चारित्र ) रूप रोंके पिटारे या भाजनके रूप में परिणत किया है, 0 विशेष के लिए देखे-वसुनन्दिश्रावकाचारमे मेंरी लिखी प्रस्तावना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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