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________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार चतरावर्तत्रितयश्चतःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।। १३९ पर्वदिनेषु चतुष्वपिमासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य। प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरःप्रोषधानशनः१४० मलफलशाकशाख.करीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो क्यामूर्ति: १४१ अन्नं पान खाद्यं लेां नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिमुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः१४२ निरतीचार पाँचों अणुव्रतोंको भी और तीन गुणव्रत चार शिक्षाक्त रूप सातों शीलोंको भी धारण करता है, वह व्रतीजनोंके मध्य में व्रतिक श्रावक कहलाता हैं ॥१३८।। तीसरे सामायिक पद-धारी श्रावकका स्वरूप-चार वार तीन तीन आवते और चार वार नमस्कार करने वाला, यथाजातरूपसे अवस्थित. ऊर्ध्व कायोत्सर्ग और पद्मासनका धारक, मन-वचन-काय इन तीनों योगों की शुद्धिवाला और प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों सन्ध्याळमें वन्दना को करनेवाला सामायिकी श्रावक है ॥१३९।। इस श्लोक की व्याख्या करते हुए प्रभाचन्द्राचार्यने लिखा है कि एक एक कायोत्सर्ग करते समय णमो अरहंताणं' इत्यादि सामायिक दण्डक और 'थोस्सामिहं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंत जिणे' इत्यादि स्तवदण्डक पढ़ जाते है । इन दोनों दण्डकों के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्तों के साथ एक एक नमस्कार करे । इस प्रकार बारह आवर्त और चार प्रणामोंका विधान जानना चाहिए। दोनों हाथोंको मुकुलित करके उन्हें प्रदक्षिणाके रूपमें घुमानेको आवर्त कहते है । वर्तमान में सामायिक करने के पूर्व चारों दिशाओंमें एक एक कायोत्सर्ग करके तीन तीन आवर्त करके नमस्कार करने की विधि प्रचलित है, पर उसका लिखित आगम आधार उपलब्ध नहीं है। प्रभा चन्द्राचार्य- रचित मुद्रित क्रियाकलापमें सामायिक दण्डक और स्तवदण्डक सकलित है, उनको वहाँ से जानना चाहिये । चारित्रसार और अनगारधर्मामृत आदि में उक्त विधि कुछ अन्तर से दृष्टिगोचर होती हैं। मूल श्लोकमें पठित 'यथाजात' पद विशेषरूपसे विचारणीय है, क्योंकि इस पदका सीधा अर्थ जन्मकाल जैसी नग्नता का होता हैं । पूर्वमें वणित सामायिक शिक्षाब्रतमें इस पदका नहीं देना और इस तीसरी प्रतिमाके वर्णनमें उसका देना यह सूचित करता है कि तीसरी प्रतिमाधारीको नग्न होकरके सामायिक करना चाहिए । टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य 'यथाजात' पदका अर्थ बाह्य आभ्यन्तर परिग्रहकी चिन्तासे रहित ऐसा करते है । पर समन्तभद्रस्वामी तो इसकी सूचना सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि चेलोपमृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्' इस श्लोक (संख्या १०२) में सामायिक शिक्षाव्रतके वर्णन में कर चुके हैं और उसे वस्त्र-वेष्टित मुनि के तुल्य बतला आये है। अतः इस तीसरी प्रतिमाके वर्णनमें 'यथाजात' पद देकर उन्होंने स्पष्ट रूपसे नग्न दिगम्बर वेष में सामायिक करनेका विधान किया हैं। यतः सामा. यिकको एकान्तमें करने का विधान है, अतः तीसरी प्रतिमाधारी के लिए बैसा करना संभव भी हैं। चौथे प्रौषध पदधारी श्रावक पदक। स्वरूप-प्रत्येक मास के चारों ही पर्वदिनोंमें अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर सावधान होकर प्रोषधोपवासको नियमपूर्वक करनेवाला प्रोषधोपवासी श्रावक कहलाता है ॥ १४० ॥ पाँचवे सचत्त विरत पदका स्वरूप-जो दयामूर्ति श्रावक कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा (कोंपल ) करीर (कैर) कन्द, फूल और बीजों को नही खाता है, वह सचित्त विरत पदका धारी श्रावक है।।१४ १।। छठे रात्रिभुक्तिविरत पदका स्वरूप-जो पुरुष प्राणियों पर दयार्द्र-चित्त होकर रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों ही प्रकारके आहारको नही खाता है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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