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________________ श्रावकाचार-संग्रह जन्मजरामयमरणः शोकवुःखैर्भयश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।।१३१ विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थप्रल्हादतृप्तिशुद्धियजानिरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् १३२ काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न बिक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः॥१३३ निःश्रेयसमधिपशास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते । निष्किट्टिकालिकाच्छविचामौकरमासुरात्मान: १३४ पूजार्थाऽजैश्वर्यबलपरिजनकामभोगभूयिष्ठः । अतिशयितभुवनमभ्दुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः।।१३५ इति श्रीस्वामीसणन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्नकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम षष्ठमध्ययनम् ।। १॥ -: ० :श्रावकपदानि देवैरेकादशदेशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः।।१३६ सम्यदर्शनशद्धः संसारशरीरभोगनिविण्णः । पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्वपषगृह्यः।।१३७ निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्चकमपि शीलसप्तकचापिाधारयतें निःशल्यो योऽसौ वतिनो मतो व्रतिक:१३८ भी अनुभव करता है । अर्थात् सल्लेखना करनेवाला संसारके सर्व अभ्युदय सुखको भोगकर अन्त में मोक्षके सुखको भोगता हैं ॥१३०॥ वह निःश्रेयस जन्म जरा मरण शोक दुःख और भयसे सर्वथा रहित है, नित्य शोर जहाँपर शुद्ध आत्मिक सुख है, उसीको निर्वाण मुक्ति और शिव आदि कहते हैं ॥१३१॥ उस निश्रेियसरूप मोक्षमें रहनेवाले सिद्ध भगवान अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखमय परम स्वास्थ, आनन्द, तृप्ति एवं शुद्धि से संयुक्त रहते है, वे हीनाधिक भावसे रहित समान अनन्त गुणोंके धारक है और अनन्तकाल तक सुखपूर्वक उस निश्रेयसमें निवास करते हैं ।।१३२॥ यदि तीनों लोकोंको उलट-पुलट करनेमें समर्थ कोई महान् उत्पात भी होवे, तो भी तथा सैकडों कल्पकालोंके बीत जानेपर भी मुक्त जीवोंके किसी प्रकारका विकार नहीं होता है ॥१३३॥ उस निःश्रेयसको प्राप्त हुए जीव कीट और कालिमासे रहित स्वच्छ सुवर्णके समान देदीप्यमान आत्मस्वरूपके धारक होकर त्रैलोक्यके चूडामणिरत्नकी शोभाको धारण करते हैं।।१३४॥ तथा वह समीचीन-सत्यधर्म पूजा, सम्पत्ति, आज्ञा, ऐश्वयंसे तथा परिजन और मनोऽनकल भोगोंकी अधिकतासे लोकातिशायी अद्भूत अभ्युदर को, अर्थात् स्वादिके सांसारिक सुखोको भी फलता हैं ।। १३५॥ इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययनमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला छठा अध्ययन समाप्त हुआ। अब आचार्य श्रावकके ग्यारह पद या प्रतिमाओंका वर्णन करते हैं - श्रीतीर्थकर देवोंने श्रावकके ग्यारह पद कहे है, जिनमें निश्चयसे प्रत्येक पदके गुण अपनेसे पूर्ववर्ती गुणोके साथ क्रमसे बढते हए रहते हैं ॥ १३६ ।। पहले दार्शनिक पदका स्वरूप-जो अतीचार-रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक है, संसार, शरीर और इन्द्रियोंके भोंगोंसे विरक्त है, पंच परमेष्ठी के चरणोंकी शरणको प्राप्त है और जो तात्त्विक सन्मार्ग के ग्रहण करनेका पक्ष रखता है, वह दार्शनिक श्रावक है।।१३७।। दूसरे व्रतिक पदका स्वरूप-जो पुरुष माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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