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________________ १९८ श्रावकाचार-संग्रह वैराग्यं ज्ञानसंपत्तिरसङ्ग स्थिरचित्तता । मिस्मयसहत्वं च पञ्च योगस्य हेतवः ।। ६०२ आधिव्याधिविपर्यासप्रमादालस्यविभ्रमाः । अलाम: सङ्गितास्थैर्यमेते तस्यान्तरायकाः ॥ ६०३ यः कण्टकैस्तुवत्यङ्गं यश्च लिम्पति चन्दनः । रोषतोषाविषिक्तात्मा तयोरासीत लोष्ठवत् ॥६०४ ज्योतिबिन्दुःकलानादः कुण्डलीवायुसंचरः । मद्रामण्डलचोंद्यानि निर्बीजीकरणादिकम् ।। ६०५ ज्ञान सम्पदा, निष्परिग्रहता, चित्तकी स्थिरता तथा भूख-प्यास, शोक-मोह, जन्ममृत्युकी तथा मदको सहन करना ये पाँच बातें ध्यानमें कारण हैं ॥६०२।। पानसिक पीडा, शारीरिक रोग अतत्त्वको तत्त्व मानना,तत्त्वको समझने में अनादर करना,तत्त्वको प्राप्त करके भीउसपर आचरण न करना,तत्त्व और अतत्त्वको समान मानना,अज्ञानवश तत्त्वकी प्राप्ति न होना,योगके कारणोंमें मनको न लगाना, ये सब ध्यानके अन्तराय है ।।६०३।। भावार्थ-ध्यान मनकी एकाग्रताके होनेसे होता है और मन एकाग्र तभी हो सकता हैं या अपनी ओर तभी लग सकता है जब संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्ति हो, स्व और पदके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो, पासमें थोडा-सा भी परिग्रह न हो,अन्यथा परिग्रहमें फंसे रहनेसे मन आत्मोन्मुख नहीं हो सकता, और चित्त भी स्थिर नहीं रह सकता। तथा भूख-प्यास वगैरहका कष्ट सहन करनेको भी क्षमता होना जरूरी हैं, नहीं तो थोडा-सा भी कष्ट होनेसे मनके अस्थिर हो उठनेपर ध्यान कैसे हो सकता है? इसी तरह यदि मनमें अहङ्कार उत्पन्न हो गया तब भी मन आत्मोन्मुख नहीं हो सकता । इसलिए ऊपर ध्यानके लिए पाँच बातें आवश्यक बतलाई हैं और कुछ बातें ध्यानको बाधक बतलाधी हैं। यदि मनमें या शरीरमें कोई पीडा हई तो ध्यान करना कठिन होता है इसी तरह प्रमादी और आलसी मनुष्य भी ध्यान नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसे मनुष्य प्रायः आरामतलब होते हैं और आरामतलब आदमी कष्ट नहीं सह सकता। जो सन्देह और विपरीत ज्ञानसे ग्रस्त है, जिन्हें यही निश्चय नहीं हैं कि आत्मा परमात्मा बन सकता है या ध्यान परमात्मपदका कारण है वे योगी बनकर भी योगकी साधना नहीं कर सकते, क्योंकि उनके चित्त में यह सन्देह बराबर काँटेको तरह कसकता रहता हैं कि न जाने इससे कुछ होगा या नहीं, यह सब बेकार न हो आदि । जो किसी लौकिक वाञ्छासे ध्यान करते है यदि उनकी वह वाच्छा पूरी न हुई तो उनका मन ध्यानसे विचलित हो जाता है, और जो परिग्रही और अस्थिर चित्त है उनका मन भी एकाग्र नहीं हो सकता। इसलिए ये सब बातें ध्यानमें विघ्न करनेवाली है । जो शरीरको काँटोंसे छेदे और जो शरीरपर चन्दनका लेप करे उन मनुष्योंपर रोष और प्रसन्नता न करके ध्यानी पुरुषको लोष्ठके समान होना चाहिए। अर्थात् जैसे लोढेपर इन बातोंका कोई प्रभाव नहीं होता वैसे ध्यानीपर भी इन बातोंका कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए और उसे दोनोंमे समबुद्धि रखनी चाहिए ।.६०४।। अब अन्य मत सम्बन्धी ध्यानका वर्णन कर उसकी समीक्षा करते हैं-तान्त्रिकों की मान्यता है कि योगी पुरुष ज्योति (ओंकार) बिन्दु (पीत-शुभ्रादि वर्णवाली बिन्दु) कला (अर्धचन्द्र) नाद (अनुस्वारके ऊपर रेखा) कुण्डली (पिंगला, इला, सुपुम्ना) वायुसंचार (कुम्भक, तेचक, पूरक) मुद्रा (पद्मासन वीरासन आदि) मण्डल (त्रिकोण, चतुष्कोण, वृत्ताकार आदि) इनके द्वारा की जानेवाली क्रियाएं, निर्बीजकरण (असंप्रज्ञात समाधि) में कारण है। इन्हें नाभिमें, नेत्रस्थानमें, ललाटपर, ब्रह्मग्रन्थि (आंतडियों के समूह) में, तालुमें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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