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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन नामी नेत्रे ललाटे च ब्रह्मग्रन्थों च तालुनि । अग्निमध्ये रवी चन्द्रे लतातन्तो हृदङ्करे ॥६०६ मृत्युञ्जयं यदन्तेषु तत्तत्त्वं किल मुक्तये । अहो मूढधियामेष नयः स्वपरवञ्चनः ।। ६०७ कर्माण्यपि यदीमानि साध्यान्येवंविधैर्नयैः । अलं तपोजपाप्तेष्टिदानाध्ययनकर्मभिः ।। ६०८ अग्निमध्य (नासिका-रन्ध्र) में, रवि (दक्षिणनाडी) में, चन्द्र (वामनाडी) में, लतातन्तु (जननेन्द्रिय) में, हृदयाङ्कर में अन्तिम मरण वेलाके समय जब किया जाता हैं,तब ध्यानी पुरुष मृत्युको जीत लेता हैं। अतः ये सब मुक्ति के लिए साधन स्वरूप हैं। आश्चर्य की बात है कि मूढ बुद्धि पुरुषोंको ठगने के लिए लोगोंने यह स्व-पर-वंचक मार्ग प्ररूपण किया हैं ॥६०५. ६०७।। भावार्थ परमात्माको सब ज्योतियोंका ज्योतिस्वरूप जानकर उनके ज्योतिर्मय रूपकी कल्पना करके ध्यान का अभ्यास करनेकी व्यवस्था हठयोगमें है । तन्त्रमतमें शिव,शक्ति और बिन्दु ये तीन रत्न माने गये है। शुद्ध जगत्का उपादान बिन्दु हैं। बिन्दुका ही दूसरा नाम महामाया है। बिन्दु क्षब्ध होकर जिस प्रकार एक ओर शुद्ध देह, इन्द्रिय,भोग और भुवनके रूप में परिणत होता है उसी प्रकार यही शब्दकी भी उत्पत्ति करता है । शब्द सूक्ष्म नाद, अक्षर-बिन्दु और वर्ण भेदसे तोन प्रकारका है । निवृत्ति,प्रतिष्ठा, विद्या,शान्ति तथा शान्त्यतीत, ये कलाएँ बिन्दुकी ही पृथक्पृथक् अवस्था हैं । शान्त्यतीत रूप या परबिन्दु समस्त कलाओंकी कारणावस्था या लयावस्था है। लययोगके ध्यानका नाम बिन्दु ध्यान है। तान्त्रिक मतमें षट्चक्रोंका अभ्यास हुए विना आत्मज्ञान नहीं होता । इडा और पिंगला नामक दो नाडियोंके मध्य में जो सुषुम्ना नाडी है उसकी छह ग्रन्थियों में पद्मके आकारके छह चक्र संलग्न हैं । गुह्यस्थानमें, लिगमूलमें. नाभिदेशमें, हृदयमें, कण्ठमें और दोनों भ्रूके बीच में- इन छह स्थानोंमें छह चक विद्यमान हैं। ये छह चक्र सुषुम्ना नामकी छह ग्रन्थियोंके रूपमें प्रसिद्ध हैं । इन छह ग्रन्थियोंका भेदन करके जीवात्माका परमात्माके साथ संयोग किया जाता है । मनुष्य शरीरमें तीन लाख पचास हजार नाडियाँ हैं। उन सबमें सुषुम्ना नाडी प्रधान है। अन्य समस्त नाडियाँ इसी सुषुम्ना नाडीके आश्रयसे रहती हैं। इस सुषुम्ना नाडीके मध्यगत चित्रानाडीके मध्य सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर ब्रह्मरन्ध हैं। कुण्डलिनी शक्ति इसी ब्रह्मरन्धके द्वारा मूलाधारसे सहस्रारमें गमन करती है । इसी से इस ब्रह्म रन्धको दिव्यमार्ग कहते है । इडा नाडी वाम भागमें स्थित होकर सुषुम्ना नाडीको प्रत्येक चक्रमें घेरती हुई दक्षिण नासापुटसे और पिंगल नाडी दक्षिण भागमें स्थित होकर सुषुम्ना नाडीको प्रत्येक चक्रमें परिवेष्टित करके बायें नासापुटसे आज्ञाचक्रमें मिलती है । इडा और पिंगला के बीच-बीच में सुषुम्ना नाडीके छह स्थानोंमे छह शक्तियाँ और छह पद्म निहित हैं। कुण्डलिनीने कुण्डलित होकर सुषुम्ना नाडीके समस्त अंशको घेर रखा हैं । तथा अपने मुख में अपनी पूंछको डालकर साढे तीन घेरे दिये हुए स्वयंभू लिंगको वेष्ठित करके ब्रह्मद्वारका अवरोध कर सुषुम्नाके मार्गम स्थित है। यह कुण्डलिनी सर्पका-सा आकार धारण करके जहाँ निद्रा ले रही है, उसी स्थानको मूलाधार चक्र कहते है। मूलाधार चक्रके ऊपर लिंगमूलमें षड्दल विशिष्ट स्वाधिष्ठान नामक चक्र है । स्वाधिष्ठान चक्रके ऊपर नाभिमूल में मणिपूर नामक दशदलपद्म है। जो योगी इस चक्रमें ध्यान करते हैं उनकी कामनासिद्धि, दुःख निवृत्ति और रोगशान्ति होती हैं, इसके द्वारा वे परदेहमें भी प्रवेश कर सकते है और अनायास ही कालको भी जीतने में समर्थ होते है । यह तन्त्रसाधकोंका मत हैं। इसी मतका निरूपण तथा निषेध ग्रन्थ कारने श्लोक बम्बर ६०५-६०७ में किया है। यदि इस प्रकारके प्रपंचोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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