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________________ २०० श्रावकाचार-संग्रह योऽविचारितरम्येषु क्षणं देहातिहारिषु । इन्द्रियार्थेषु वश्यात्मा सोऽपि योगी किलोच्यते ।। ६०९ यस्येन्द्रियार्थतष्णापि जर्जरीकुरुते मनः । तन्निरोधभवो धाम्नः स ईप्सीत कथं नरः ।। ६१० आत्मज्ञः संचित दोषं यातनायोगकर्मभिः । कालेन रुपयन्नेति योगी रोगी च कल्पताम् ।। ६११ लाभेऽलामे वने वासे मित्रेऽमित्रे प्रियेऽप्रिये । सुखे दुःखे समानात्मा भवेत्तद्ध्यानधी:सदा ।। ६१२ परे ब्रह्मण्यनूचानो धृतिमैत्रीदयान्वितः । अन्यत्र सूनृताद्वाक्यानित्यं वाचंयमी भवेत् ॥ ६१३ संयोगे विप्रलम्भे च निवाने परिदेवने । हिंसायामन्ते स्तेये भोगरक्षासु तत्परे ॥ ६१४ । जन्तोरनन्तसंसारभ्रमैनोरदनर्मनी । आर्तरौद्रे त्यजेद्धयाने दुरन्तफलदायिनी ।। ६१५ ये काम हो सकते हैं तो जप-तप,देवपूजा, दान और शास्त्रपठन, आदि कर्म व्यर्थ हो है ॥६०८॥ कैसी विचित्र बात है कि जो बिना विचारे सुन्दर प्रतीत होनेवाले और क्षण भरके लिए शारीरिक पीडाको हरनेवाले इन्द्रियोंके विषयोंमें फंसा हुआ हैं वह भी योगी कहा जाता है ॥६०९।। इन्द्रियोंके विषयोंकी लालसा जिसके मनको सताती रहती हैं वह मनुष्य इन्द्रियोंके निरोधसे प्राप्त होनेवाले मोक्ष धामकी इच्छा ही कैसे कर सकता हैं ।।६१०|| रोगी भी अपनेको जानता हैं। योगी भी अपनी आत्माको जानता है। रोगी अपने शरीरमें संचित हुए दोषको समयसे उपवास आदिके कष्ट तथा औषधादिके द्वारा क्षय कर देता हैं और नीरोग हो जाता है। योगी भी अपनी आत्मामें संचित हुए दोषको परीषहसहन तथा ध्यानादिकके द्वारा समयसे क्षय कर देता है और मुक्तावस्थाको प्राप्त कर लेता है ।।६११।। जो ध्यान करना चाहता हैं उसे सदा हानि और लाभमें, वन और घरमें,मित्र और शत्रुमे, प्रिय और अप्रियमें तथा सुख और दुःख में समभाव रखना चाहिए ॥६१२॥ तथा परम आत्मतत्त्वका पूर्णज्ञान होने के साथ-साथ धैर्य, मित्रता और दयासे युक्त होन। चाहिए। और उसे सदा सत्य वचन ही बोलना चाहिए, अथवा मौनपूर्वक रहना चाहिए ॥६१३।। आर्त और रोद्रध्यानका स्वरूप तथा उनको त्यागनेका उपदेश-संयोग, वियोग, निदान, वेदना, हिंसा झूठ, चोरी और भोगोंकी रक्षामें तत्परतासे होनेवाले आर्त और रौद्रध्यान वुरे फलोको देनेवाले हैं और जीवको अनन्त संसारमें भ्रमण करानेवाले पापरूपी रथके मार्ग हैं । इनको त्याग देना चाहिए ॥६:४-६१५।। भावार्थ-पहले ध्यानके तीन भेद बतलाकर आर्तध्यान और रौद्रध्यानको अशुभ ध्यान बतला आये हैं । यहाँ उन दोनो ध्यानोंका ही स्वरूप बतलाया है। आतध्यान चार प्रकारका होता है-एक,अनिष्ट वस्तका संयोग हो जानेपर उससे छटकारा पानेके लिए जो रात-दिन अनेक प्रकारके उपायोंका चिन्तन करना हैं उसे अनिष्टसंयोग नामका आर्तध्यान कहते हैं। जैसे किसीको कुरूपा कुलटा पत्नी मिल गयी या कर्कशा पत्नी मिल गयी तो कैसे यह मरे या कैसे इससे पिण्ड छूटे इस प्रकारका निरन्तर चिन्तन करते रहना प्रथम आर्तध्यान हैं । यदि किसी अप्रिय वस्तुका संयोग हो जाये तो उससे बचने के लिए रात-दिनका कलपना छोडकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि वह अपने अनुकूल हो जाये । दूसरा, इष्टवस्तुका वियोग हो जानेपर उसकी प्राप्तिके लिए जो रात-दिन चिन्तन करते रहना है उसे इष्टवियोग नामका आर्तध्यान कहते है। तीसरा, आगामी भोगोंकी प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता करना निदान नामका आर्तध्यान है। चौथे, शरीरमें कोई पीडा हो जानेपर उसके दूर करने के लिए जो रातदिन चिन्तन करता हैं उसे वेदना नामका आर्तध्यान कहते है । आशय यह है कि किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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