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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन २०१ बोध्यागमकपाटे ते मुक्तिमार्गार्गले परे । सोपाने श्वभ्रलोकस्य तत्त्वेक्षावृतिपक्ष्मणी ॥ ६१६ लेशतोऽपि मनों यावदेते समधितिष्ठतः । एष जन्मतरस्तावदुच्चैः समधिरोहति ॥ ६१७ ज्वलन्नञ्जनमाधत्ते प्रदीपो न रवि: पुनः । यथाशयविशेषेण ध्यानमारमते फलम् ।। ६१८ प्रमाणनयनिक्षेपैः सानुयोगविशुद्धधीः । मति तनोति तत्त्वेष धर्मध्यानपरायणः ।। ६१९ अरहस्ये यथा लोके सती काञ्चनकर्मणी । अरहस्यं तथेच्छन्ति सुधियः परमागमम् ॥ ६२० यः स्खलत्यल्पबोधानां विचारेष्वपि मादृशाम् । स संसारार्णवे मज्जज्जन्त्वालम्बः कथं भवेत्।। ६२१ अहो मिथ्यातम: पुसा युक्तिद्योते स्फुरत्यपि । यदन्धयति चेतांसि रत्नत्रयपरिग्रहे ॥ ६२२ आशास्महे तदेतेषां दिन यत्रारतकल्मषाः । इदमेते प्रपश्यन्ति तत्त्वं दुःखनिवर्हणम् ।। ६२३ अकृत्रिमो विचित्रात्मा मध्ये च सराजिमान् । मरुत्रयीवृतो लोकः प्रान्ते तद्धामनिष्ठितः ॥६२४ प्रकारको मानसिक वेदनासे पीडित होकर जो बुरे संकल्प-विकल्प किये जाते हैं वह सब आर्तध्यान है। दूसरा अशुभ ध्यान रौद्रध्यान हैं । इसके भी चार प्रकार हैं-पहला, दूसरोंको सताने में उनकी जान लेने में आनन्द मानना हिंसानन्दी नामका रौद्रध्यान हैं। दूसरा, झूठ बोलने में आनन्द मानना मृषानन्दी नामका रौद्रध्यान हैं । तीसरा, चोरी करने में आनन्द अनुभव करना, चौर्यानन्दी नामका रौद्रध्यान है । चौथा, विषय-भोगकी सामग्रीका सवय करने में आनन्द मानना विषयानन्दी नामका रौद्रध्यान है । ये दोनों ही प्रकारके ध्यान नहीं करने चाहिए । क्योंकि ये दोनों अशुभ ध्यान ज्ञानकी प्राप्तिको रोकनेके लिए किवाडके तुल्य है, मुक्तिके मार्गको बन्द करने के लिए सांकलके तुल्य है, नरकलोकमें उतरने के लिए सीढीके तुल्य हैं और तत्त्वदृष्टिको ढाँकनेके लिए पलकोंके समान है ।।६१६।। जब तक मन में ये दोनों अशुभध्यान लेशमात्र भी रहते है तब तक यह जन्मरूपी वृक्ष बराबर ऊँचा होता जाता है ।।६१७।। जैसे दीपक भी जलता है और सूर्य भी जलता है। किन्तु दीपकके जलनेसे काजल बनता है,सूर्यसे नहीं। बैसे ही ध्यान भी ध्यान करनेवालेके अच्छे या बुरे भावोंके अनुसार ही अच्छा या बुरा फल देता है ।। ६१८।। (अब धर्मध्यानका वर्णन करते है-) जो निर्मल बुद्धि मनुष्य धर्मध्यान करता है वह प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोगद्वारोंके साथ तत्त्वोंका चिन्तत करने में मनको लगाता है। ६१९।। (धर्मध्यानके चार भेद है-आज्ञा विचय, अपायविचय, लोक या संस्थानविचय और विपाकविचय। इनमेंसे प्रत्येकका स्वरूप बतलाते है-) जैसे संसारमें सोनेके दो काम प्रकट रूपमें होते है-एक उसे कसौटीपर कसा जाता हैं-दूसरें, उसे छैनीसे काटकर देखा जाता हैं। इन दो कामोंसे सोनेकी पहचान भलीभाँति हो जाती है। वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य परमागमको भी गूढतारहित ही पसन्द करते हैं । आशय है कि सोनेके समान परमागम भी ऐसा होना चाहिए जिसे सत्यकी कसौटीपर कसा जा सके। किन्तु जो आगम हमारे सरीखे अल्पज्ञानियोंके विचारोंकी कसौटीपर भी खरा नहीं उतरता, वह संसाररूपी समद्रमें डूबते हुए जीवोंका सहारा कैसे हो सकता है ।। ६२०-६२१।। ___अपायविचयका स्वरूप-आश्चर्य हैं कि युक्तिरूपी प्रकाशके फैले रहते भी मिथ्यात्वरूपी अन्धकार रत्नत्रयको ग्रहण करने में मनुष्योंके चित्तोंको अन्धा बनाता है। हम उस दिनकी आशा करते हैं जब ये मनुष्य पापोंको दूर करके दुःखोंसे छुडानेवाले तत्त्वको देख सकेंगे ।। ६२२-६२३।। लोकविचयका स्वरूप-यह लोक अकृत्रिम है-इसे किसी ने बनाया नहीं हैं। तथा इसका स्वरूप भी विचित्र हैं-कोई मनुष्य दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथ दोनों कल्होंपर रखकर खडा हो तो उसका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार इस लोकका है। उसके बीच में चौदह For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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