SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ श्रावकार-संग्रह रेणुवज्जन्तवस्तत्र तिर्यगूर्वमधोऽपि च । अनारतं भ्रमन्त्येते निजकर्मानिलेरिता: ।। ६२५ इति चिन्तयतो धयं यतात्मेन्द्रियचेतसः । तमांसि द्रवमायान्ति द्वादशात्मोदयादिव ॥ ६२६ भेदं विजितामेवमभेदं भेदवजितम् । ध्यायन्सूक्ष्म क्रियाशुद्धो निष्क्रिय योगमाचरेत् ।। ६२७ विलीनाशयसम्बन्धः शान्तमारतसंचयः । देहातीतः परंधाम कैवल्यं प्रतिपद्यते ॥ ६२८ राजू लम्बी और एक राजू चौडी त्रसनाली हैं । त्रसजीव उसी त्रसनालीमें रहते है। यह लोक चारों ओरसे तीन वातवलयोंसे घिरा हुआ हैं। उन वातवलयोंका नाम घनोदधिवातवलय, घनवातवलय और तनवातलय हैं । वलय कडेको कहते हैं। जैसे कडा हाथ या पैरको चारों ओरसे घेर लेता है वैसे ही ये तीन वायु भी लोकको चारों ओरसे घेरे हुए है। इसलिए उन्हें वातवलय कहते है। तथा लोकके ऊपर उसके अग्रभागमें सिद्ध स्थान है,जहाँ मुक्त हुए जीव सदा निवास करते है। इस प्रकार लोकके स्वरूपका चिन्तन करनेको लोकविचय या संस्थान विचय धर्मध्यान कहते हैं ।।६२४॥ विपाकविषयका स्वरूप - उस लोकके ऊपर नीचे और मध्यमें सर्वत्र अपने कर्मरूपी वायुसे प्रेरित होकर धूलिके समान जीव सदा भ्रमण करते हैं । इस प्रकार कर्मोंके विपाक यानी उदय का चिन्तन करनेको विपाकविचय धर्मध्यान कहते है।।६२५।। भावार्थ-जैसे वायुके झोंकेसे धूलके कण उडते फिरते है वैसे ही अपने-अपने अच्छे या बुरे कर्मोके प्रभावसे जीव भी तीनों लोकोंमें सदा भ्रमण करते रहते हैं। अपने-अपने उपार्जन किये हुए कर्मके फलका जो उदय होता हैं उसे विपाककहते है। वह विपाक प्रतिक्षण होता रहता हैं और अनेक रूप होता हैं। उसका विचार करना विपाक बिचय धर्मध्यान कहा जाता हैं। इस प्रकार अपनी इन्द्रियोंकी और चित्तको संयत करके जो धर्मध्यान करता है उसका अज्ञान ऐसा विलुप्त होता है जैसे सूर्यके उदयसे अन्धकार नष्ट होता है।।६२६ । (धर्मध्यानके बाद शुक्लध्यान होता हैं। अतः शुक्लध्यानका स्वरूप बतलाते है . ) अभेदरहित भेद अर्थात पथक्त्ववितर्क और भेदरहित अभेद अर्थात् एकत्ववितर्क शुक्लध्यानको करके जीवसूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक ध्यानको करता है और फिर क्रियानिवृत्ति नामक चौथे शुक्लध्यानको करता हैं । इसके करते ही आत्मासे समस्त कर्मोंका सम्बन्ध छूट जाता है । श्वासोच्छवास रुक जाता है और - अशरीरी आत्मा परंधाम-मोक्षको प्राप्त करता है ।। ६२७-६२८।। भावार्थ-जो ध्यान क्रियारहित इन्द्रियातीत और अन्तर्मुख होता है उसे शुक्लध्यान कहते हैं। कषायरूपी मलके क्षय होनेसे अथवा उपशम होनेसे आत्माके परिणाम निर्मल हो जाते है और उन परिणामोंके होते हुए ही यह ध्यान होता है. इसलिए आत्माके शुचि गुणके सम्बन्धसे इसे शुक्लध्यान कहते है । उसके चार भेद है-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और क्रिया निवृत्ति । इनमें से पहलेके दो शुक्लध्यान उपशम श्रेणी या क्षपकश्रेणीवाले जीवोंके होते है और शेष दो शुक्लध्यान केवलज्ञानियोंके होते हैं पहला शुक्ल ध्यान वितर्क वीचार और पृथक्त्वसहित होता हैं । इसमें पृथक-पृथक् रूपसे श्रुतज्ञान और योग बदलता रहता हैं। इसलिए इसे पृथक्त्ववितर्क वीचार कहते है। पृथक्त्व अनेकपनेको कहते है। वितर्क श्रुतज्ञानको कहते है और वीचार ध्येय,वचन और योगके संक्रमणको कहते है। जिस शुक्लध्यानमें ये तीनों बातें होती है उसे पहला शुक्लध्यान जानना चाहिए । दूसरा शुक्लध्यान वितर्कसहित विचाररहित अतएव एकत्वविशिष्ट होता है। इस ध्यानमें ध्यानी मुनि एकद्रव्य अथवा एक पर्यायको एक योगसे चिन्तन करता है। इसमें अर्थ, व्यंजन और योगका संक्रमण नहीं होता। इसलिए इसे एकत्व वितर्क कहते है । इस ध्यानसे घातिकर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते है और ध्यानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy