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________________ यशस्तिलचकम्पूगत - उपासकाध्ययन प्रक्षीणोभयकर्माणं जन्मदो षैविवजितम् । लब्धात्मगुणमात्मानं मोक्षमा हुमनीषिणः ।। ६२९ मार्गसूत्रमनुप्रेक्षाः सप्त तत्त्वं जिनेश्वरम् । ध्यायेदागमचक्षुष्मान्प्रसंख्यानपरायणः ।। ६३० ज्ञाने तत्वं यथैतिह्यं श्रद्दधे तदनन्यधीः । मुञ्चेऽहं सर्वमारम्भमात्मन्यात्मानमादधे ।। ६३१ आत्मायें बोधिसंपत्तेरात्मन्यात्मानमात्मना । यदा सूते तदात्मानं लभते परमात्मना ।। ६३२ ध्यातात्मा ध्येयमात्मव ध्यानमात्मा फलं तथा । आत्मा रत्नत्रयात्मोक्तो यथायुक्तिपरिग्रहः । ६३३ सुखामृत सुधासू 'तस्तद्रवेरुदयाचल: । परं ब्रह्माहमत्रासे तमः पाशवशीकृतः ।। ६३४ यदा चकास्ति मे चेतस्तद्धयानोदयगोचरम् । तदाहं जगतां चक्षुः स्यामादित्य इवातमाः ।। ६६५ आदी मध्वमधु प्रान्ते सर्वमिन्द्रियजं सुखम् । प्रात स्नायिषु हेमन्ते तोयमुष्णमिवाङ्गिषु ।। ६३६ यो दुरामयदुवंशी बद्धग्रासो यमोऽङ्गिनि । स्वभावसुभगे तस्य स्पृहा केन निवार्यते ।। ६३७ मुनि सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है। उसके बाद आयु जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहती है तब तीसरा शुक्लध्यान होता है। इसे करनेके लिए पहले केवली बादर काययोग में स्थिर होकर बादर वचनयोग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते है । फिर काययोगको छोड़कर वचनयोग ओर मनोयोग में स्थिति करके बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं। पश्चात् सूक्ष्म काययोग में स्थिति करके वचनयोगका और मनोयोगका निग्रह करते है तब सूक्ष्मक्रिय नामक ध्यानको करते हैं। इसके बाद अयोगकेवली गुणस्थान में योगका अभाव हो जानेसे आस्रवका निरोध हो जाता है । उस समय वे अयोगी भगवान् समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याते हैं । इस ध्यान में श्वासोच्छ्वासकासंचार ओर समस्तयोग तथा आत्माके प्रदेशोका हलन चलन आदि क्रियाएँ नष्टहो जाती है । इसलिए इसे समुच्छिन्नक्रिय या क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं । इसके प्रकट होनेपर अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समय में कमकी ७२ प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती है । अन्तसमय में Marat बची १३ प्रकृतियाँ भी नष्ट हो जाती है और योगी सिद्धपरमेष्ठी बन जाता हैं ( शुक्तध्यानसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः मोक्षका स्वरूप बतलाते हैं - ) जिसके द्रव्यकर्म और भावकर्म नष्ट हो गये है, अतएव जो जन्म, जरा, मृत्यु आदि दोषोंसे रहित हैं तथा अपने गुणों को प्राप्त कर चुका हैं उस आत्माको बुद्धिमान् मनुष्य मोक्ष कहते है ।। ६२९ ।। शास्त्रद्रष्टा ध्यानी पुरुषको सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः ' इस सूत्रका बारह अनुप्रेक्षाओं का, साततत्त्वोंका और जिनेन्द्र भगवान्का ध्यान करना चाहिए || ६३०|| मैं आगमानुसार तत्त्वोंको जानता हूँ और एकाग्र मन होकर उनका श्रद्धान करता हूँ | तथा समस्त आरम्भको छोड़ता हूँ और अपने में अपनेको लगाता हूँ ।। ६३१|| जब यह ज्ञानरूप सम्पत्तिका स्वामी आत्मा आत्मासे आत्मामें आत्माको ध्यान करता हैं तब आत्माको प्रमात्मरूपसे पाता है ।। ६३२ ।। आत्मा ध्यान करनेवाला हैं, आत्मा ही ध्येय है, आत्मा ही ध्यान है और रत्नत्रयमयी आत्मा ही ध्यानका फल है । युक्ति के अनुसार उसको ग्रहण करना चाहिए ।। ६३३ ।। मैं सुखरूपी अमृतके लिए चन्द्रमा हूँ | तथा सुखरूपी सूर्य के लिए उदयाचल हूँ। मै परब्रह्म स्वरूप हूँ किन्तु अज्ञानान्धकाररूपी जाल में फँसकर इस शरीर में ठहरा हुआ हूँ ||६३४ | जब मेरे चित्त में उस ध्यानका उदय होगा तब मै अन्धकाररहित सूर्य के समान संसारका द्रष्टा हो जाऊँगा । ६३५ ।। जितना भी इन्द्रियजन्य सुख है, वह प्रारम्भ में मीठा प्रतीत होता है किन्तु अन्तमें कटुक ही लगता है । जैसे जो लोग शीतऋतु में प्रातः स्नान करते है उन्हें पानी उष्ण प्रतीत होता है || ६३६ || जो यमराज रोगसे ग्रस्त और देखनेमें असुन्दर प्राणीको खानेके लिए Jain Education International २०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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